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________________ मंजिल के पड़ाव एक अस्त व्यक्ति भी अपनी शक्ति का विकास करते-करते शक्ति के शिखर पर पहुंच जाता है। पहले अस्त होते हुए भी उदित हो जाता है। शौर्य, वीर्य, पराक्रम-ये सारे महान् बनाने वाले हैं। हम इस मार्ग पर चलें । मुझे आश्चर्य होता है-महावीर का अनुयायी आलसी और कायर, पुरुषार्थ-हीन और दीन क्यों है ? क्या उसने महावीर को सही माने में जाना नहीं है ? महावीर जैसा पराक्रम का इतना बड़ा प्रवचनकार पूरे भारतीय दर्शन में कोई हुआ है ? यह खोजना होगा, किन्तु उसको मानने ले कितने पराक्रमी हैं ? अस्त और अस्त कुछ व्यक्ति अस्त अवस्था में ही जन्म लेते हैं और मृत्यु तक वे अस्त ही रहते हैं। कभी महान् बनते ही नहीं। कालसौकरिक इसका निदर्शन है । वह धंधे से कसाई था। वह हमेशा हिंसा में रत रहा तथा मरते दम तक हिंसा ही करता रहा । शक्ति पाना और शक्ति का उपयोग करना-बिल्कुल भिन्न तत्त्व है । अगर शक्ति पा ली और वह मनुष्य या प्राणी जगत् के विरोध में चलती है तो महान् बनाने वाली नहीं होती। वही शक्ति विकासकारी होती है, जो मानव समाज के कल्याण में लगे । जो शक्ति का अपने एवं प्राणी जगत् के कल्याण के लिए प्रयोग करता है, वह व्यक्ति महान् बनता है। कालसौकरिक कसाई में क्रूरता की चेतना रही, उदात्त चेतना नहीं जगी। जिसकी चेतना उदात्त नहीं होती, वह कभी महान नहीं बन सकता। सन्दर्भ आचारशास्त्र का . हमारे सामने ये चार निदर्शन हैं। हम इनके जीवन का विश्लेषण करें और वह विश्लेषण आचारशास्त्र के सन्दर्भ में करें। आचारशास्त्र में कुछ व्यक्ति ऐसे हुए हैं, जिन्होंने इस सिद्धांत को पकड़ा है---आत्म-संयम का जीवन जीए बिना, कठोर संयम का जीवन जीए बिना कोई व्यक्ति महान् नहीं बन सकता । शक्ति और आत्म-संयम ---- इन दो सूत्रों के आधार पर व्याख्या करें तो हमारे सामने एक ऐसा जीवन-दर्शन प्रस्तुत होता है, जिसके आधार पर आज भी बहुत कुछ किया जा सकता है। प्रारम्भ से विद्यार्थी को यह सिखाया जाए-शक्ति का विकास जरूरी है। शक्ति बढ़ाओ और उसका संवर्द्धन करो, दीन-हीन मत रहो, कमजोर मत बनो। शक्ति-संवर्द्धन के सूत्र जो जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार करता है, उसके लिए महावीर ने गांच तुलाओं का विधान किया है । वे पांच तुलाएं किसलिए हैं ? वे सब शक्ति-संवद्धन के लिए हैं। तपस्या, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल-इन पांच तुलाओं से जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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