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उदय और अस्त
उदित और उदित
शक्तिशाली बनने का सिद्धांत है स्वतन्त्रता और स्वावलंबन | व्यक्ति अपनी शक्ति पर, अपने पैरों पर खड़ा हो । संयम के विना कोई समाज शक्तिशाली नहीं बन सकता । शक्तिशाली तभी बन सकता है, जब दीनता की भावना न हो । स्वतन्त्रता तभी आएगी जब शक्ति का विकास होगा । भरत प्रारम्भ से ही शक्तिशाली थे । अपने पराक्रम से विशाल साम्राज्य को जीता और चक्रवर्ती बने । पराक्रम से शासन चलाया । शक्ति का संवर्द्धन करते रहे | सुखवादी धारा में न बहकर संयम की साधना की । उन्होंने कठोर संयम साधा इसलिए वे अंत तक उदय में रहे ।
उदित और अस्त
ब्रह्मदत्त जीवन के प्रारम्भ में उदित थे, पराक्रमी और शक्तिशाली थे, परन्तु धीरे-धीरे सुखवादी जीवन में चले गए । ब्रह्मदत्त ने कहा- मैं इन भोगों में इतना आसक्त हो गया हूं कि जानता हुआ भी इन्हें छोड़ नहीं सकता । यह है अस्त होने का रास्ता । यह सच है - जो व्यक्ति सुख, आराम, काम और भोग में फंस गया, वह कमजोर होता चला जाएगा । शक्ति उसके पास रह नहीं सकती । नीत्से ने कहा – दुःख और संघर्ष कभी खराब नहीं होता। वह जीवन के विकास के लिए होता है । जो व्यक्ति दुःख और संघर्ष के रास्ते से नहीं गुजरता, वह कभी शक्ति की मंजिल को नहीं पा सकता । चक्रवती ब्रह्मदत्त इस दिशा में नहीं गया । केवल भोग में डूबा रहा । परिणाम यह आया वह शक्तिहीन हो गया और अस्त की ओर चला गया । उसकी मृत्यु भी दुःखद अवस्था में हुई। पहले आंखें फूट गई । बड़ी कष्टदायक बनी मृत्यु | यह है शक्ति के ह्रास का एक उदाहरण । अस्त और उदित
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जीवन के ये दोनों उदाहरण हमारे सामने हैं । शक्ति जन्मना ही हो, यह जरूरी नहीं है । इसका उदाहरण है— द्रिकेशबल । वह जन्मना ही दुर्बल था । उसका परिवार भी दुर्बल था । हरिकेशबल ने कठोर आत्मसंयम की दिशा में प्रस्थान किया, संयम का जीवन जीया । हरिकेशबल चाण्डालकुल में पैदा हुआ । उस समय अन्त्यज जाति का कितना भयंकर विरोध था ? किंतु संयम का बल साधते - साधते वह शक्तिशाली बन गया । यह स्थिति बनी - एक ओर हरिकेशबल मुनि खड़ा है, दूसरी तरफ ब्राह्मण और उपाध्याय खड़े हैं, यज्ञार्थी पुरोहित और छात्र खड़े हैं । इस द्वन्द्व में मुनि हरिकेशबल विजेता बनता है । वे सारे यज्ञकर्मी मुनि के चरणों में झुक जाते हैं और प्रार्थना के स्वर में कहते हैं-मुनिवर ! आप महान् हैं । हमें क्षमा करें, हमें आशीर्वाद दें ।
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