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________________ मंजिल के पड़ाव स्थानांग में चार प्रकार के व्यक्तियों का निदर्शन प्रस्तुत है'१. प्रारंभ में उन्नत और अन्त में उन्नत, जैसे-चक्रवर्ती भरत । २. प्रारम्भ में उन्नत और अन्त में अनुन्नत, जैसे-चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त । ३. प्रारंभ में अनुन्नत और अंत में उन्नत, जैसे-हरिकेश बल । ४. प्रारंभ में अनुन्नत और अन्त में अनुन्नत, जैसे-कालसौकरिक । सुखवादी वृत्ति भरत चक्रवर्ती का जीवन प्रारम्भ से ही उदय में था और अंत तक उदय में रहा । चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त पहले उदय में थे, बाद में अस्त हो गए । इन दोनों को हम नीतिशास्त्र की दृष्टि से देखें। दोनों चक्रवर्ती हैं, भरत भी चक्रवर्ती और ब्रह्मदत्त भी चक्रवर्ती । ब्रह्मदत्त प्रारम्भ में उदय में थे और अंत में अस्त हो गए । ऐसा क्यों हुआ? इस सन्दर्भ में हम एक सिद्धांत की ओर ध्यान दें। नीतिशास्त्र का एक सिद्धांत है—सुखवाद । नीत्से ने सुखवाद की कटु आलोचना की है। उसका कथन है-सुखवाद मनुष्य को अस्त की ओर ले जाता है । फ्रायड का सिद्धांत था काम (Sex) का । उसका मानना था -हमारी हर प्रवृत्ति के मूल में कामना है । नीत्से ने इसका विरोध किया । उसने कहा-यह सिद्धांत सही नहीं है। हमारी वृत्ति में है Will to Power । यह हमारा प्रमुख सिद्धांत है---शक्ति के लिए इच्छा। फ्रायड की भाषा में कामना मूल आधार है और नीत्से की भाषा में शक्ति जीवन का मूल आधार है । इसका तात्पर्य है-सुखवादी वृत्ति आदमी को उदय से अस्त की ओर ले जाती है। परम श्रेय क्या है ? हम इन दोनों सिद्धांतों के सन्दर्भ में विवेचन करें। यह बात स्पष्ट हो जाती है-भरत चक्रवर्ती प्रारंभ से अंत तक उन्नत रहे क्योंकि उन्होंने सुखवादी जीवन की धारा में जीवन को नहीं लगाया, किन्तु जीवन को आत्मसंयम की धारा में लगाया। वह संघर्ष, जो कठोर आत्म-संयम के साथ चलता है, व्यक्ति को सदा उदय की ओर ले जाता है। जो व्यक्ति सुख की धारा में चला जाता है, आराम, कामना, भोग-विलास की वृत्ति में चला जाता है, वह उदय से अस्त की ओर चला जाता है। कठोर आत्म-संयम के बिना कोई भी उदय में रह नहीं सकता। नीत्से ने परम श्रेय माना है शक्ति को। जहां आत्म-संयम नहीं होता, वहां शक्ति नहीं हो सकती। नीत्से ने कहा-परोपकार, दीनता का भाव मनुष्य को नीचे ले जाने वाला है। आचार्य भिक्षु ने कहा-व्यक्ति को दीन बनाए रखें और फिर उपकार करें, यह समाज के विकास का सिद्धांत कभी नहीं हो सकता। १. ठाणं ४/३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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