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मंजिल के पड़ाव
शास्त्र, आचारशास्त्र केवल समाज की व्यवस्था के साथ जुड़ा हुआ है। वह मात्र वर्तमान की उपयोगिता है । जैसे ही उपयोगिता बदलेगी, आचार बदल जाएगा । उसका आधार कभी शाश्वत नहीं रहेगा।
जयपुर में अणुव्रत आन्दोलन पर बहुत लम्बी चर्चा हुई । प्रश्न आया -अणुव्रत का आधार क्या है ? अणुव्रत नीतिशास्त्र है, जीवन का व्यवहार है। उसमें न समाज की व्यवस्था है न राज्य की व्यवस्था है । समाज में दो शब्द चलते हैं --- पाप और अपराध । पश्चिम में चलता है अशुभ और अपराध । धर्मशास्त्र का शब्द है अधर्म। पाप शन्द लौकिक व्यवस्था के कारण ज्यादा प्रचलित हो गया। मूल है धर्म और अधर्म । समाजशास्त्र की दृष्टि से व्याख्या करेंगे तो कहा जाएगा--- जो कार्य समाज सम्मत नहीं है, उसका आचरण करना पाप है। जो काम कानून सम्मत नहीं है, उसका आचरण करना अपराध है । कुछ काम ऐसे हैं, जो दोनों दृष्टियों से खराब हैं। जैसे चोरी करना, डाका डालना सामाजिक पाप भी है और कानूनन अपराध भी। किन्तु धर्म का काम बिल्कुल नीतिशास्त्र का है। जो जैन माचारशास्त्र है, वह पाप और अपराध-इन दोनों भूमिकाओं से परे जाता है। उसका हृदय है-चोरी करने का संकल्प ही कर लिया तो अधर्म हो गया। वहां न समाज की पकड़ है और न कानून की पकड़ है । अपने मन में कोई भी बुरा संकल्प मात्र किया है, आचरण नहीं किया है, वह संकल्प समाज की दृष्टि से पाप कैसे होगा ? क्योंकि वहां समाज की पकड़ ही नहीं है किन्तु धर्म की दृष्टि से विचार करें तो वह अधर्म है। बुरा संकल्प करना भी अधर्म है। सामाजिक आचार का आधार
इसका मतलब है-सामाजिक आचारशास्त्र आचरण और कर्तव्य के आधार पर चलता है । व्यक्ति ने कैसा संकल्प किया है, यह उसका आधार है । आध्यात्मिक आचार अध्यवसाय के आधार पर चलता है । आचरण की बात वहां दूसरे नम्बर पर आती है। व्यक्ति की आन्तरिकता कैसी है ? संकल्प कैसा है ? यह हमारा आध्यात्मिक आधार है । व्यवस्था की वहां पकड़ ही नहीं है । बन्दुक में गोली भरी और चला दी, वह कानून की पकड़ में आता है पर गोली चलाने का मन में संकल्प किया, वह पकड़ में ही नहीं आता है । जब तक व्यक्ति आचरण नहीं कर लेता, कानून की गिरफ्त में नहीं आता।
सामाजिक व्यवस्था पर आधारित नीतिशास्त्र आचरण पर चलता है। जैन आचार शास्त्र एक का आधार है आध्यात्मिकता । भीतर में क्या हो रहा है ? हमारी कसोटी है आध्यात्मिकता । वह जुड़ी या नहीं
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