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इहैव मोक्षः
आज के नीतिशास्त्री मानते हैं—जैन दर्शन ने धर्म को जीवन के साथ जोड़ा, उसका श्रेय जैन आचारशास्त्र को जाता है । उसने धर्म को केवल पारलौकिक नहीं माना । जब अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तब इस सूत्र का बार-बार उच्चारण हुआ-धर्म केवल पारलौकिक नहीं है । उससे वर्तमान जीवन सुधरना चाहिए । जिसका वर्तमान जीवन अच्छा नहीं है, उसका भविष्य कैसे अच्छा होगा ? तुम्हारे पैर के तले अंधेरा है और तुम कल्पना करते हो अगले चरण में उजाला होने की । यह कैसे संभव है ? यह सम्भव है - वर्तमान जीवन अच्छा बने तो अगले जीवन की अलग से चिन्ता करने की जरूरत नहीं है । वर्तमान में जिसके सामने प्रकाश है, भविष्य में उसके जीवन में अपने आप प्रकाश होने वाला है । इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया -क्या मोक्ष मरने के बाद मिलेगा ? क्या परलोक में मिलेगा ? जैन आचारशास्त्र का निचोड़ है यह सूत्र -- सुविहितानां इहैव मोक्षः - वर्तमान जीवन में मोक्ष, वर्तमान जीवन में स्वर्गं । वर्तमान में मोक्ष है तो भविष्य में होने वाला है । आचारशास्त्र जुड़ेगा तो इहलोक - परलोक - दोनों ही सूत्र जुड़ेंगे । जैन आचारशास्त्र की यही विशेषता है- - वह केवल वर्तमान जीवन के साथ, इस जीवन के साथ नहीं जुड़ा । यदि धर्म को वर्तमान जीवन से ही जोड़ा जाता तो आत्म-कर्तृत्ववाद, कर्मवाद— ये सारे उठ जाते ।
मंजिल के पड़ाव
जनआचार शास्त्र : दो पक्ष
जैन आचारशास्त्र का प्रथम प्रबल पक्ष है - व्यवहारवाद । उसने नीतिशास्त्र को व्यावहारिक बताया, पारलौकिक नहीं रखा | नीतिशास्त्र का दूसरा पक्ष है - इन्द्रिय की अनुभव की सीमा है । इसमें भी दो धारणाएं रही । एक ओर कुछ लोगों ने इन्द्रिय अनुभव को सब कुछ मानकर निर्णय किया । केवल ऐन्द्रियक आधार पर नीतिशास्त्र को खड़ा किया | दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता के आधार पर नीतिशास्त्र को खड़ा किया गया। ये दोनों ही पक्ष बड़े जटिल बन गए । जैनाचार्यों ने इन दोनों का समन्वय किया । अगर इन्द्रिय अनुभव सीमित है तो उसके आधार पर नीतिशास्त्र का महल नहीं खड़ा किया जा सकता । अगर खड़ा किया गया तो वह सुखवादी बन जाएगा और सुखवाद कभी भी नैतिकता की परिभाषा में नहीं आता । जो इन्द्रियों को अच्छा लगेगा, वही हमारा आचार बन जाएगा, वही हमारा कर्त्तव्य बन जाएगा ।
जटिल विषय
क्या हम ईश्वर पर छोड़ दें ? प्रश्न हो सकता है - ईश्वर का आदेश
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