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चार गतियां : आचारशास्त्रीय दृष्टिकोण
जैन आचारशास्त्र का प्रसिद्ध सूत्र है - जिसने दोनों लोकों की आराधना करली | अर्थ बहुत साधारण सा लगता है । इसकी व्याख्या भी बहुत गंभीर नहीं है किन्तु किसी भी सूत्र का मूल्यांकन नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र के संदर्भ में करें तब पता लगता है कि यह सूत्र कितना गंभीर है । आचारशास्त्र : दो धारणाएं
दो प्रकार की आचारशास्त्रीय धारणाएं रही हैं - इहलोकवादी और परलोकवादी । पाश्चात्य दार्शनिकों और आचारशास्त्रियों ने आचार की, नैतिकता की धारणा को मुख्यतः इहलोक से संबंधित बतलाया । जो व्यक्ति का शुभ संकल्प है और जिसके द्वारा समाज की ठीक व्यवस्थाएं चलती हैं, वह नीतिशास्त्र का आधार बनता है । प्राचीन भारत में धारणा रही परलोकवादी । कहा गया - धर्म करो, देवता प्रसन्न हो जाएंगे, तुम स्वर्ग में चले जाओगे, परलोक सुधर जाएगा । तीर्थंकरों और जैन आचार्यों ने इस क्षेत्र में एक बड़ा काम किया। उन्होंने धर्म और नैतिकता को जीवन के साथ जोड़ा । उसी में से यह स्वर निकला - तेण आराहिया दुवे लोए - उसने दोनों लोकों की आराधना कर ली। इस वाक्य में पश्चिमी आचारशास्त्र और प्राचीन भारतीय आचारशास्त्र - दोनों का समन्वय है ।
प्रत्यक्ष है मानसिक सुख
हम इसका मूल्यांकन करें । यह सूत्र कितना गंभीर है ! ऐतिहासिक दृष्टि से कितना महत्त्वपूर्ण है । एक नई धारणा, नई स्थापना संसार के समक्ष रखी - नैतिकता की । आचार का अनुशीलन करने वाला न केवल इहलोक की आराधना करता है, न केवल परलोक की आराधना करता है बल्कि वह इहलोक और परलोक दोनों को साध लेता है । उमास्वाति ने कहा- तुम स्वर्ग की बात करते हो। क्या किसी ने स्वर्ग का सुख देखा है ? जिसने देखा है, उसे भी याद नहीं है । तुम बात करते हो मोक्ष की । धर्म करता हूं ताकि मोक्ष मिले । किसने मोक्ष देखा है ? प्रत्यक्ष क्या है ? यह मानसिक शांति का सुख प्रत्यक्ष है, उपशम का सुख प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष के लिए इतनी दौड़ लगा रहे हो । यह कैसी बात है ? यह धर्म की वर्तमान जीवन के साथ जोड़ने वाला सूत्र है - शमसुखं प्रत्यक्षम् ।
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