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कितना विशाल है कषाय का जगत् !
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लचीला माना जा सकता है और वही समाज को ठीक चला सकता है । समाज विचित्र भावों वाले व्यक्तियों का ढांचा है । अगर कोरा आदर्शवाद हो तो वह जकड़ जाएगा । सीमा होगी, समझौता होगा इसलिए धर्म को मानकर समाज नहीं चलता । धर्म को मानकर आध्यात्मिक व्यक्ति चल सकता है ।
धर्म और समाज
आचार्य भिक्षु का यह दृष्टिकोण बहुत महत्त्वपूर्ण है--धर्म और समाज -- दोनों को मिलाओ मत, अलग-अलग रखो । यदि यह चाह हैसारा समाज धर्मं के द्वारा शासित हो, धर्म और समाज एक ही हैं तो गड़बड़ पैदा हो जायेगी । क्योंकि सारा समाज धर्म को हृदय से स्वीकार ही नहीं करता । समाज में चारों प्रकार के व्यक्ति मिलेंगे । जिन व्यक्तियों के भाव कर्दम जल के समान हैं, उनके लिए धर्म नाम की कोई चीज नहीं है । जिनका भाव खंजन के समान हैं, उनके लिए भी कोई खास बात नहीं है । बालुका के समान जो लोग समाज में मिलते हैं, वे धर्म को मानकर चलते हैं । जो लोग पत्थर के पानी के समान उजले और साफ होते हैं, ऐसे व्यक्ति समाज में विरल ही मिलते हैं ।
समाज उस समष्टि का नाम है, जहां पत्थर का पानी भी है, बालु का पानी भी है, खंजन और कर्दम का पानी भी है । यह एक विचित्र प्रकार की खिचड़ी है । उसे हम एक ही भाव से चलाना चाहें तो कैसे सम्भव होगा ? केवल धर्म के द्वारा उसका संचालन कैसे सम्भव होगा ?
धर्म का काम
भावों की तरतमता को समझें और यथार्थ को स्वीकार करें । धर्म का काम यह है कि भावों को कैसे प्रशस्त बनाया जाए ? उस प्रक्रिया में चलें । धर्म की दिशा होगी भावों को प्रशस्त करना, निर्मल बनाना, पत्थर के पानी के समान बना देना । वहां से धर्मं चलता है किन्तु चलते-चलते दुरूह मार्ग आ जाता है और बड़ी समस्या पैदा हो जाती है । समाज में हिंसा समाप्त हो जाए, यह बहुत अच्छा स्वप्न है पर कठिन स्वप्न है । प्रयत्न हो ऊर्ध्वारोहण का वृत्तियों और भावों के परिष्कार का । निषेधात्मक भाव कैसे समाप्त हों ? विधायक भाव
के द्वारा । हमारे पास हृदय परिवर्तन । हमारी किन्तु हमें यथार्थ का बोध,
यह सारा सम्भव है साधना उपदेश, शिक्षा, प्रशिक्षण और तीव्र बने, यह बहुत जरूरी है स्पष्ट होना चाहिए ।
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समाज में कैसे बढ़ें ? साधन क्या हैं ? केवल आस्था और प्रयत्न शक्ति का बोध भी
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