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सीन चक्षु
है । प्राचीन साहित्य में आठ सिद्धियों का वर्णन मिलता है । आज भी वे सिद्धियां हैं । वे सिद्धियां एकाग्रता और अभियोजना के साथ प्राप्त होती हैं । इसमें कोरी एकाग्रता काम नहीं करती। जैसे किसी को देखना है, तो पहले ज्ञेय का निर्धारण करें, फिर ज्ञेय के साथ सम्बन्ध स्थापित करें, तादात्म्य जोड़ें और लंबे समय तक जोड़े रखें । उसी दिशा में हम देखते चले जाएं तो भीतर बैठे-बैठे हम उसे देख सकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है । किसी ने शब्दसिद्धि कर ली । उसे तत्काल समझ में आ जाएगा - इसके पीछे क्या है ? आगे क्या है ? यह अनुभव की बात है । यदि अतीन्द्रिय चेतना का विधि के साथ कोई ठीक प्रयोग करे तो वह निश्चित प्राप्त हो सकती है ।
तादात्म्य : लक्ष्य के साथ
कोरी एकाग्रता, कोरा ध्यान पर्याप्त नहीं है । पहले लक्ष्य का निर्धारण करना होगा- मुझे क्या पाना है ? अपनी शक्तियों को कहां लगाना है ? ध्यान के साथ जुड़ जाता है लक्ष्य का निर्धारण, लक्ष्य के साथ तादात्म्य | वस्तुतः अन्तरात्मा में अपनी सारी चेतना को ले जाएं, ठीक लक्ष्य का निर्धारण करें, उसी दिशा में प्रयोग करें, आत्मविश्वास के साथ करें तो एक दिन अवश्य उस लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे । इसमें कोई संदेह नहीं । स्थानांग सूत्र का यह महत्त्वपूर्ण वाक्य है- - एक चक्षु, दो चक्षु, तीन चक्षु | साधु को आगम चक्षु कहा गया । यदि हम एक आगम चक्षु भी बन जाएं तो दूसरे चक्षु स्वतः खुल जाएंगे। हमें वह आंख मिलेगी, वह दृष्टि मिलेगी, जिसकी उपलब्धि इन चर्म चक्षुओं से कभी नहीं हो सकती ।
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