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मंजिल के पड़ाव
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सिद्ध को सर्वचक्षु कहा गया है। जब केवलज्ञान होता है तब पूरा शरीर विकसित हो जाता है । नन्दी सूत्र के अनुसार केवलज्ञानी का पूरा शरीर ही प्रकाशमय बन जाता है । अवधिज्ञान के लिए चार मर्यादाएं बतलाई गई
पुरओ अंतगयं-सामने से होने वाला अवधिज्ञान । मग्गओ अंतगयं-पीछे से होनेवाला अवधिज्ञान । पासओ अंतगयं-पाव से होनेवाला अवधिज्ञान ।
मझगयं-ऊपर से होनेवाला अवधिज्ञान । उत्पन्न होता है ज्ञान
अवधिज्ञानी आगे से, पीछे से, दाएं-बाएं से और ऊपर से भी देख सकता है। प्रेक्षाध्यान में आनंद केन्द्र पर प्रेक्षा का प्रयोग कराया जाता है। सुझाव दिया जाता है-आनन्द केन्द्र पर ध्यान करें। जैसे बिजली का प्रकाश एक दिशा में जाता है वैसे ही चित्त को आगे से पीछे तक एक दिशा में ले जाएं। जब ज्ञानकेन्द्र और शांतिकेन्द्र पर ध्यान कराया जाता है, तब सुझाव दिया जाता है-जैसे दीपक का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलता है, वैसे ही चित्त को चारों दिशाओं में फैलाएं। यह सब होता है, एक सीमा के साथ । जब केवलज्ञान होता है तब पूरा शरीर एक साथ प्रकाशित हो जाता है । वह सर्वतः चक्षु है । उसे त्रिचक्षु कैसे माना जाए ? यह बड़ा महत्त्व का प्रश्न है । चुणिकार ने बहुत सुन्दर परिभाषा की है-पण्णं आयसमुत्थं नाणं-ज्ञान आत्मा से पैदा हुआ है, वह कहीं से आया नहीं है, पढ़ा नहीं गया है । जो पढ़ा जाता है, वह गृहीत ज्ञान होता है और यह उत्पन्न ज्ञान है । वह तीन चक्षुवाला है, जिसका मतिज्ञान भी विशिष्ट बन गया, श्रुतज्ञान भी अतिशायी बन गया और अवधिज्ञान भी अतिशायी बन गया। वह होता है त्रिचक्षुतीन आंख वाला। उद्घाटन कैसे हो
हमारे सामने महत्त्वपूर्ण प्रश्न है-आंख कैसे खुले ? चक्षु का उद्घाटन कैसे हो ? यह मान लिया गया-एक आंख होती है, दो आंखें होती हैं और तीन आंखें भी होती हैं । हमारे पास एक आंख है । हम कम से कम दो आंख वाले तो बनें । हमें तो तीन आंख वाला बनना चाहिए क्योंकि हमारे सामने मतिज्ञान का विषय है, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान का विषय भी है। किन्तु जब तक हमारा ध्यान बाहर ही बाहर रहेगा तब तक ‘उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर' वाली बात कभी संभव नहीं होगी, भीतर से ज्ञान पैदा होने वाली बात कभी संभव नहीं होगी, दो चक्षु या तीन चक्षु वाली बात कभी संभव नहीं होगी। देवता के दो चक्षु भवप्रत्ययी होते हैं, जन्मजात होते हैं, किन्तु अपनी साधना के द्वारा जो प्राप्त होता है, वह हमारी उपलब्धि
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