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चक्षुष्मान
तीन चक्षु
जितना भी वैभव है, उसमें सबसे बड़ा वैभव, सबसे बड़ी शक्ति हैचक्षु | अगर चक्षु है तो सबका स्वरूप है । अगर चक्षु नहीं है तो स्वरूप भी हमारे लिए अरूप है, साकार भी अनाकार है । साकार दृष्टि मनुष्य के लिए रमणीय होती है । अनाकार है पर वह हमारे लिए कुछ भी नहीं है । वह हमें बोधगम्य नहीं होता । वह हमारे ज्ञान की पकड़ में नहीं है । यह बदलता हुआ स्वरूप साकारदृष्टि का है । रमणीयता, भव्यता यह सारा बदलने में है, परिवर्तन होने में है । जितना परिवर्तनशील है, नश्वर है, वह सब साकार है । अगर एक चक्षु नहीं है तो व्यक्ति के लिए सारा जगत् बेकार है । जगत् का उसके लिए कोई अर्थ नहीं होता, इसलिए चक्षु को, चक्षुष्मान् को बहुत महत्व दिया गया ।
प्रत्येक आदमी अपनी आंखों पर भरोसा करता है और सब कुछ जान लेता है | यदि आंख न हो, तो प्रत्येक चीज में कठिनाई का अनुभव होगा । उसके अभाव में सब एकामेक हो जाता है । आज के युग में तीसरे नेत्र की बहुत चर्चा चली है । इस पर तिब्बती और भारतीय साहित्य में काफी लिखा गया । स्थानांग सूत्र में चक्षुष्मान् के तीन प्रकार बतलाए गए हैं'
१. एक चक्षु २. द्विचक्षु
३. त्रिचक्षु |
छद्मस्थ मनुष्य एक चक्षु होता है ।
देवता द्विचक्षु होते हैं ।
अतिशायी ज्ञान दर्शन को धारण करनेवाला त्रिचक्षु होता है ।
एक चक्षु
प्रत्येक आदमी के दो आंखें होती हैं, किन्तु सूत्रकार के अनुसार एक ही आंख है आंखें दो हैं पर आकार - प्रकार में अन्तर नहीं। दोनों आंखें परोक्ष हैं । प्रत्यक्ष का ज्ञान किसी भी आंख को नहीं है । आंखों देखी बात १. ठाणं ३ / ४९९
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