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तीन मनोरथ
श्रावक के मनोरथ
महावीर ने जीना सिखाया तो साथ-साथ मरना भी सिखाया | स्वाध्याय का संकल्प, अकेला होने का संकल्प और समाधिमरण का संकल्पइन तीनों का संकल्प जीवन को एक-एक सोपान आगे बढ़ाता चला जाता है ।
श्रावक का भी संकल्प होता है, मनोरथ होता है । महावीर ने श्रावक के तीन मनोरथ बतलाएं हैं' -
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१. कब मैं अल्प या बहुत परिग्रह का परित्याग करूंगा ?
२. कब मैं आगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होऊंगा ?
३. कब मैं अपश्चिममारणान्तिकी संलेखना की आराधना से युक्त होकर प्रायोपगमन अनशनपूर्वक मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विहरण करूंगा ?
संकल्प जगाएं
पहला मनोरथ है परिग्रह के त्याग का । आज के आर्थिक युग में परिग्रह को छोड़ने के स्थान पर परिग्रह को बढ़ाने की बात सोची जा रही है । परिग्रह की आकांक्षा से अनेक समस्याएं उलझ रही हैं । चिन्ता, भय, बीमारी -- ये सब परिग्रह और आसक्ति के परिणाम हैं । यदि परिग्रह को छोड़ने की भावना जागे तो अनेक समस्याएं सुलझ जाएं। इस संदर्भ में महावीर ने श्रावक और मुनि के लिए मार्गदर्शन दिया । उसके आधार पर श्रावक और मुनि अपने-अपने मनोरथ बनाएं, संकल्प जगाएं, जिससे जीवन का विकास हो सके, समाधिमरण का विकास हो सके, मारणान्तिक प्रक्रिया का विकास हो सके । जीवन और मरण - दोनों सफलता के सूत्र हैं । इनका मूल्यांकन मनोरथ को बलवान् बनाकर किया जा सकता है ।
१. ठाणं ३/४९७
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