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________________ अनुशासन की त्रिपदी प्रभाव की दुनिया अनुशासन का प्रश्न केवल आध्यात्मिकता से जुड़ा हआ नहीं है। बड़े-बड़े योगी और भक्त हुए हैं, उन्होंने लंबी-लंबी तपस्याएं भी की हैं पर उन्होंने अनुशासन नहीं किया । वे केवल भक्ति रस में डूबे रहे। जहां हजारलाख व्यक्तियों को साथ लेकर चलने का प्रश्न आता है वहां पुण्य की बात को जोड़ना ही पड़ेगा । वहां आध्यात्मिकता, वीतरागता या कोरी मध्यस्थता काम नहीं देगी। सौरमंडल अपना प्रभाव डालता है। यह पढ़कर आश्चर्य हुआ-जयाचार्य जब आचार्य नहीं बने थे तब छोटे और दुबले पतले लगते थे । लोग सोचते थे-ये काम कैसे चलाएंगे ? जब आचार्य बने, अनुशास्ता बने तब ऐसा लगा-उनका पुण्योदय भी प्रबल है । वे अनुशासन के प्रतीक बन गए। हम इस बात को न भूलें-अनुशासन के साथ आंशिक वीतरागता हो, कम से कम अपने राग-द्वेष की उच्छ्लता न हो। इतनी स्थिति अनिवार्य है एक अनुशासन करने वाले व्यक्ति के लिए भी। उसका अन्तिम बिन्दु बनता है मध्यस्थता । साथ में पुण्य का योग भी होना चाहिए। तब कहीं अनुशासन आत्मानुशासन बनता है, अपने पर अनुशासन आता है । आत्मोत्सर्ग भक्त निमाई और पंडित रघुनाथ-दोनों मित्र थे । एक बार वे नदी की ओर जा रहे थे । निमाई भक्त भी थे और विद्वान् भी थे। दोनों नदी को पार कर रहे थे। निमाई ने कहा-'पंडितजी ! मैंने न्याय का ग्रन्थ लिखा है । आपको सुनाऊं ?' 'सुनाओ।' निमाई ने ग्रन्थ सुनाया । पंडितजी रोने लग गए । निमाई ने पूछा-'मित्रवर ! यह क्या ? आपको अच्छा नहीं लगा ?' 'बहुत अच्छा लगा।' "फिर ये आंसू क्यों ?' 'मैंने भी एक न्याय का ग्रन्थ लिखा है। मैंने सोचा-मेरा ग्रन्थ अप्रतिम और अद्वितीय होगा। इससे बढ़िया संसार का और कोई ग्रन्थ नहीं होगा । तुम्हारे ग्रन्थ को सुनकर लगा--- मेरा ग्रन्थ इसके आगे कुछ भी नहीं है । मुझे हर्ष भी हुआ और विषाद भी । मेरे रोने का यही कारण है।' भक्त निमाई ने ग्रन्थ को फाड़ा और नदी में फेंक दिया। इतना आत्मोत्सर्ग हर व्यक्ति कर नहीं सकता। सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ को अपने मित्र के लिए फाड़कर नदी में फेंक देना, यह था आत्मोत्सर्ग । आत्मोत्सर्ग के बिना आत्मानुशासन आ नहीं सकता। कौन व्यक्ति अपना कितना उत्सर्ग कर सकता है, बलिदान कर सकता है। वह तभी संभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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