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________________ मंजिल के पड़ाव पहले बिन्दु से चले और वीतरागता के अन्तिम बिन्दु पर पहुंच जाए, वह अपने पर अनुशासन कर सकता है। वीतराग कभी अनुशासक नहीं बन सकता । वह तो आत्मानुशासित हो सकता है । अनुशासी वीतराग नहीं हो सकता । इसीलिए श्वेताम्बर संप्रदाय में यह मान्यता हुई-गौतम को आचार्य नहीं बनाया गया, सुधर्मा को आचार्य बनाया गया। दिगम्बर परम्परा के अनुसार प्रथम आचार्य बने गौतम । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार पहले आचार्य बने सुधर्मा । कारण बताया गया-गौतम केवली हो गए। केवली आचार्य नहीं बन सकता इसलिए सुधर्मा को आचार्य बनाया गया। . तीसरी भूमिका जहां परानुशासन का प्रश्न है वहां वीतराग को अनुशासक नहीं बनाया जा सकता । जो दूसरे पर अनुशासन करे, उसको मध्यस्थ होना चाहिए । उसका राग और द्वेष निरंकुश न हो, उसका अपने राग और द्वेष पर अंकुश हो, वह वीतराग न हो, किन्तु मध्यस्थ हो । व्यक्ति इस अवस्था में हो तो वह दूसरे पर अच्छा अनुशासन कर सकता है । तीसरी भूमिका है तदुभय अनुशासन की। कुछेक ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपना अनुशासन भी रखते हैं किन्तु सबको साथ ले चलने के लिए । एक व्यक्ति अपने पर अनुशासन रख सकता है । वह सौ व्यक्तियों के साथ चले या उनको चलाए, यह अपने अनुशासन से संबंधित बात नहीं है । इसमें एक डोर की भी जरूरत होती है। एक ऐसे धागे की जरूरत है, जो सौ मनकों को एक धागे में पिरो दे। एक ऐसा व्यक्तित्व, जो धागे का काम करे, वहां तदुभय अनुशासन सफल होता है । माला तदुभय अनुशासन का उदाहरण कठिन है अनुशासन करना __ अनुशासन की ये तीन श्रेणियां बनती हैं। दूसरे पर अनुशासन करना कठिन काम है, दूसरे की बात को मानना-सुनना भी बहुत कठिन काम है । प्रत्येक व्यक्ति भावों से घिरा हुआ है । भाव या कषाय का ज्वार मस्तिष्क में इतना भयंकर चलता है कि व्यक्ति अनुशासन रख नहीं पाता । प्रत्येक व्यक्ति में भावों का एक भयंकर ज्वार होता है । उस ज्वार पर अनुशासन करना, नियंत्रण करना बहुत कठिन बात है । उसमें वीतरागता या मध्यस्थता वाली बात ही नहीं चलती । यदि हम सूक्ष्मता से विचार करें तो अनुशासन के साथ पुण्य का संबंध भी जुड़ता है। यदि व्यक्ति का पुण्य प्रबल है, तो उसमें अनुशासन करने की क्षमता आती है । यदि पुण्य प्रबल नहीं है, विघ्न-बाधाएं हैं तो उसका अनुशासन कोई नहीं मानता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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