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आत्मरक्षा एक अहिंसक की
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में अहिंसा पर बहुत विचार किया गया है । महात्मा गांधी ने भी हिंसा और अहिंसा की समस्या पर गहराई से विचार किया था। अहिंसा : एक समस्या
अहिंसा की एक समस्या है-एक व्यक्ति हिंसा कर रहा है। क्या उसे रोका जा सकता है ? क्या उसे अहिंसक बनाया जा सकता है ? क्या ऐसा करना हमारे लिए सम्भव है ? एक सामान्य नियम मान लिया गया'जीवो जीवस्य जीवनम्'–जीव ही जीव का जीवन है। गांधीजी के सामने प्रश्न आया --छिपकलियां बहुत जीवों को मारती हैं। क्या छिपकली को मार देना चाहिए, जिससे बहुत से जीव बच जाएं ? क्या सिंह-बाघ आदि को मार दिया जाए, जिससे बहुत से जीव बच जाएं ? गांधीजी ने उत्तर दियाप्रकृति के नियम और काम में हस्तक्षेप करना मेरा काम नहीं है।
यह बहुत सुन्दर समाधान है। आत्म-रक्षक का कर्तव्य
आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा--एक हिंसक पशु को मार दिया जाए, यह सोचना अहिंसा पर प्रहार करना है। आचार्य भिक्षु ने कहा-दूसरे जीवों को बचाने के लिए बलात् किसी को मार देना, यह अहिंसा का प्रश्न ही नहीं है । अहिंसा के सामने एक मात्र उपाय है हृदय-परिवर्तन । इन समस्याओं के सन्दर्भ में महावीर का चिन्तन महत्त्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार के आत्म-रक्षक बतलाए गए हैं । आत्मा की रक्षा के हमारे सामने तीन साधन हैं
१. हिंसा छोड़ने के लिए प्रेरित करना । २. न माने तो मौन हो जाना । ३. मौन न रह पाएं या उस हिंसा को न देख पाएं तो एकांत में चले
जाना। द्रष्टा न रहे
एक हिंसा कर रहा है, दूसरा मौन खड़ा देख रहा है, तो वह भी हिंसक है । एक प्रश्न है-एक व्यक्ति हिंसा कर रहा है, उस समय देखने वाले का क्या कर्तव्य है ? जिसमें अहिंसा का भाव है, वह क्या करे ? बताया गया-वह द्रष्टा न रहे। पहला काम यह है कि वह उसे हिंसा न करने का उपदेश दे, धार्मिक प्रेरणा से प्रेरित करे । यह प्रेरणा केवल मनुष्य को ही दी जा सकती है। एक पेड़ को यह प्रेरणा नहीं दी जा सकती, सिंह को यह प्रेरणा नहीं दी जा सकती । एकेन्द्रिय प्राणी को यह प्रेरणा नहीं दी १. ठाणं ३/३४७
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