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मंजिल के पड़ाव
जा सकती। पशु-पक्षियों को भी यह प्रेरणा न दी जा सकती। यह केवल विषय बनता है मनुष्य का और उसमें भी समझने वाले मनुष्य का । मनुष्यों में भी कुछ पशु हैं, जैसे आतंकवादी । उन पर प्रेरणा का कोई फर्क नहीं पड़ता । मौन हो जाए
महावीर ने कहा-पहला काम है, धर्म की प्रेरणा दें। यह पहला उपाय है हिंसा से बचाने का । हिंसा करने वाले व्यक्ति को उपदेश दिया फिर भी वह नहीं मानता है, हिंसा नहीं छोड़ता है तब अहिंसक की क्या मर्यादा होनी चाहिए ? प्रतिक्रिया करना भी अहिंसक की मर्यादा नहीं है । उस समय अहिंसक की मर्यादा है-वह मौन हो जाए । वह सोचे-मैंने इसे समझाया, मेरा कर्तव्य तो मैंने निभा दिया। अहिंसा में बल-प्रयोग को कोई स्थान ही नहीं है। जहां भी अहिंसा में भय या प्रलोभन आ गया, वहां एक नया व्यापार शुरू हो गया। प्रलोभन न दे
एक व्यक्ति ने कहा-बकरे को मत मारो, पचास रुपए दूंगा। उस व्यक्ति ने उसे न मारना स्वीकार कर लिया । उसे पचास रुपए मिल गए। अब वह रोज ज्यादा बकरे लाने लगा। व्यक्ति उन्हें कब तक छुड़ाएगा? यह एक नया व्यापार हो गया। हिंसा बढ़ जाएगी। यह मर्यादा नहीं हो सकती।
बल-प्रयोग का स्थान है समाज की भूमिका में । ये सारी उलझनें क्यों पैदा हुई ? जो अहिंसा और अध्यात्म का चिन्तन था, उसका आरोपण हमने सामाजिक भूमिका पर कर दिया और जो समाज की भूमिका का चिन्तन था, उसका आरोपण हमने अध्यात्म की भूमिका पर कर दिया। यहीं समस्या पैदा हो गई। भिन्न है भूमिका
हम साफ-साफ समझ-समाज की भूमिका का चिन्तन एक प्रकार का होगा। समाज की परिभाषा-शब्दावली एक प्रकार की होगी । जो तत्त्व समाज की रक्षा और विकास में उपयोगी हैं, वे हमारे लिए अच्छे हैं, जो अनुपयोगी हैं, वे हमारे लिए अच्छे नहीं हैं। समाज का लक्ष्य भिन्न है, शब्दावली भिन्न है और साधन भी भिन्न हैं। अध्यात्म का लक्ष्य भिन्न है, साधन और शब्दावली भी भिन्न है। जब हम दोनों को मिश्रित कर देते हैं तब समस्या क्यों नहीं उलझेगी?
प्रश्न है देश की रक्षा का। हम अहिंसा की दृष्टि से सोचेंगे तो मामला गड़बड़ा जाएगा। यह तथ्य है-जब तक परिग्रह है, हिंसा होती
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