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आत्मरक्षा एक अहिंसक की
भगवान् ऋषभ ने अहिंसा धर्म का प्रवर्तन किया । जब मोक्ष और सयम की बात सामने आई, धर्म और अहिंसा की बात सामने आई तब अनेक समस्याएं पैदा हुईं। उससे पहले कोई बात ही नहीं थी । जहां समाज की भूमिका है वहां अहिंसा जैसा कोई शब्द भी नहीं होगा । समाज की भूमिका में केवल उपयोगिता का मूल्य होगा । जिसकी उपयोगिता है, वह अच्छा है और जो अनुपयोगी है, वह बुरा है । यह सारी शब्दावली विकसित हुई है मोक्ष के सन्दर्भ में । जब आत्मा, मोक्ष और बन्धन पर चिन्तन हुआ, बन्धन-मुक्ति की बात सामने आई तब हिंसा-अहिंसा, कर्म का बन्ध, पुण्य-पाप, धर्मअधर्म – ये सारे शब्द सामने आए । उस स्थिति में एक संघर्ष पैदा हो गया । समाज में अनेक प्रवृत्तियां चलती हैं, समाज की रक्षा के लिए, राष्ट्र की रक्षा के लिए या किसी प्राणी की रक्षा के लिए । उसे क्या माना जाए ? धर्म माना जाए या अधर्म माना जाए ? यह प्रश्न खड़ा हो गया । इस प्रश्न के सन्दर्भ में अनेक विचार आए, अनेक मत बन गए । कुछ विचारकों ने सब कुछ को धर्म मान लिया । जब धर्म प्रतिष्ठित हो गया तब यह जरूरी था - प्रत्येक उपयोगी बात को धर्म का रूप दिया जाए । प्रत्येक प्रवृत्ति को धर्म का जामा पहनाने या एक स्वरूप देने का क्रम शुरू हो गया । अहिंसा की समस्या और उलझ गई ।
अहिंसा की परम्परा
भगवान् महावीर ने अहिंसा का बहुत सुन्दर चिन्तन दिया । आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्न व्याकरण सूत्र आदि-आदि आगमों में हिंसा और अहिंसा के जीवंत पहलुओं पर विचार किया गया । बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी अहिंसा पर इतना विचार नहीं हुआ । जैन परम्परा में कुछ प्रमुख आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अहिंसा पर काफी सोचा । जिनभद्रगणि का विशेषावश्यक भाष्य अहिंसा की चर्चा से भरा पड़ा है । हरिभद्र ने भी अहिंसा पर बहुत चिन्तन किया । 'पुरुषार्थं सिद्ध्युपाय' अहिंसा के विविध पहलुओं का विश्लेषण करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । आचार्य भिक्षु जैसे बहुत कम आचार्य हुए हैं, जिन्होंने अहिंसा पर इतना जोर दिया । 'जैनसिद्धांत दीपिका', 'अहिंसा तत्त्वदर्शन', और 'भिक्षु विचार दर्शन' इन ग्रन्थों
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