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न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति
लिखने की स्थिति, न याद करने की स्थिति और न समझने की स्थिति । जब भी कालुगणी को विनोद करना होता, तब मैं विनोद का पात्र बनता । यह मेरा सौभाग्य है-पूज्य कालुगणी का और आचार्यश्री का ऐसा वात्सल्य
और करुणापूर्ण अभिसिंचन मिला, मेरी स्थिति बदल गई। १५-१६ वर्ष का मुनि नथमल और उसके बाद का मुनि नथमल-बहुत अन्तर आ गया। कोई कल्पना ही नहीं कर सकता कि यह वही मुनि नथमल है । यह सब होता हैगुरु की कृपा से । अगर इतना पोषण और सिंचन न मिलता तो मुनि नथमल कभी युवाचार्य महाप्रज्ञ नहीं बन पाता । महानता को दिशा
हम यह मानते हैं-क्षयोपशम विद्यमान है पर निमित्त न मिले तो क्षयोपशम भी निकम्मा चला जाएगा। अगर गुरु का निमित्त न मिले तो विद्यमान शक्तियां भी नष्ट हो जाती हैं। इस सारी स्थिति को देखें तो यह स्पष्ट लगता है-अकृतज्ञ होने के लिए कोई अवकाश नहीं है। अपने गुरु, आचार्य और उपकारी के प्रति कोई अकृतज्ञ होता है, तो वह ढीठ होता है । यह वाक्य बहुत महत्त्वपूर्ण है-धर्माचार्य दुष्प्रतिकार होता है, उसका बदला नहीं चुकाया जा सकता। उसके प्रति सदा कृतज्ञ रहना चाहिए । स्थानांग का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है-तीन व्यक्ति दुष्प्रतिकार होते हैं-उनके उपकार का बदला कभी भी नहीं चुकाया जा सकता-माता-पिता, उपकारी और धर्माचार्य ।' तेरापंथ की महान् परम्परा कृतज्ञता की परम्परा है । सबके प्रति मन में कृतज्ञता की भावना रहे तो प्रत्येक व्यक्ति उदात्त मनोवृत्ति वाला बन जाए । कृतज्ञता की परम्परा का निर्वहन करने वाले व्यक्ति ही इस सूक्त की सार्थकता के प्रतीक हैं । न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति--जिनके जीवन में यह सूत्र चरितार्थ हो जाता है, उन्हें महानता की दिशा उपलब्ध हो जाती है । व्यक्ति को वह उपलब्ध होता है, जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी । हम कृतज्ञता का मूल्यांकन करें, महानता का सूत्र उपलब्ध हो जाएगा।
१. ठारणं ३/८७
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