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________________ १२ मंजिल के पड़ाव धर्माचार्य के प्रति कृतज्ञता का तीसरा स्थान है धर्माचार्य । धर्माचार्य का कितना उपकार होता है ! उसके उपकार का कभी बदला नहीं चुकाया जा सकता। तेरापंथ में आचार्य भिक्षु से लेकर आज तक कृतज्ञता की परम्परा रही है । आचार्य भिक्षु ने महा-खेतसी, रायचन्द आदि मुनियों के योग से मैंने सुखपूर्वक साधुपन पाला । क्या कोई इतनी कृतज्ञता की बात कह सकता है ? यह स्वर कृतज्ञता से अनुप्राणित स्वर है । तेरापंथ में वही बीज पनपता चला गया । जब आचार्य भिक्षु इतने कृतज्ञ थे तब जयाचार्य का कृतज्ञ होना कौन सी आश्चर्य की बात है ? हम कालुयशोविलास को पढ़ें । आचार्यश्री की कृतज्ञता का एक सजीव चित्र सामने आ जाता है । अहंकार का इतना विलय होना अपने आप में एक महानता है और बड़ा वही बन सकता है, जिसमें अहंकार का विलय करने की क्षमता है । जिस राजा ने अहंकार किया, उसके सामन्त उसके विरोधी हो गए। जिसमें सबके प्रति कृतज्ञता का भाव होता है, उसे सब लोग चाहते हैं। अपनी बात प्रत्येक समर्थ व्यक्ति के सामने भी यही प्रश्न है-हमारी समर्थता की पृष्ठभूमि में कितने व्यक्तियों का योग रहा है ? हम चाहे कितने ही समर्थ हो जाएं पर क्या उस समय को भूल जाएं ? उन व्यक्तियों को भुला दें ? जब मैं दीक्षित हुआ, मेरी अवस्था थी दस वर्ष । आचार्यश्री थे सोलह-सत्रह वर्ष के । आचार्यश्री बहुत होशियार तथा दक्ष साधु माने जाते थे। आचार्यश्री बार-बार फरमाते हैं-मैं कुछ भी नहीं था, कालूगणी ने ही सब कुछ बनाया। पूज्य कालगणी ने आचार्यवर को जो अवसर दिया, ऐसा अवसर किसी भाग्यशाली को ही मिलता है। ___ मैं अपनी स्थिति बताऊं । छोटे गांव में जन्मा । विद्यालय भी नहीं था। पढ़ने का कोई साधन नहीं। सरदारशहर में ननिहाल था। वहां नेमीचन्दजी सिद्ध के पास रहकर थोड़ा बहुत पढ़ा । पूज्य कालूगणी के पास दीक्षित हो गया। बीदासर का पंचायती नोहरा । उसके ऊपर गणेशजी का उपासरा । आचार्यश्री संस्कृत की साधनिका करवा रहे थे । मुझे बतायाजिन शब्द में प्रथमा विभक्ति में आगे 'सि' हो तो 'जिनः' रूप बनेगा। मैंने कहा-'सि' ही क्यों आएगा ? 'ति' क्यों नहीं आएगा ? आचार्यश्री ने कहा-तुम्हें संस्कृत आनी मुश्किल है। अकल्पनीय बदलाव एक बार पूज्य कालगणी ने संतों के अक्षर देखे । मैंने भी दिखाए । मंत्री मुनि ने कहा- 'कुंवर साहब के अक्षर तो डागले सूखे जिस्या है ।' न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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