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धर्म के दो प्रकार
मुख्यता दी गई है व्रतों को । आचरण के दो प्रकार हैं- अगार चारित्र धर्म और अनगार चारित्र धर्म, गृहस्थ का चारित्र धर्म और संन्यासी का चारित्र धर्म | गृहस्थ का चारित्र धर्मं बारह प्रकार का है और साधु का चारित्र धर्म पांच प्रकार का है । महावीर का धर्म है - संयम और व्रत का धर्म । हमें पहुंचना है व्रतों के आचरण तक, संयम की साधना तक । धर्म के दो मुख्य सूत्र बन गए- - स्वाध्याय करना और व्रती रहना, संयमी रहना । अगर स्वाध्याय नहीं है तो आचरण समझ में ही नहीं आएगा | स्वाध्याय एक प्रकाश है, जहां दीख जाता है कि व्रत क्या है ? जीवन क्या है ? आचरण क्या है ? आचरण की एक शब्द में व्याख्या की जाए तो वह होगी - समता । जिसमें समता है, वह धर्म है । जिसमें समता नहीं है, वह धर्म नहीं है । समता और वीतरागता एक ही बात है । रागद्वेष से मुक्त, लाभ-अलाभ से मुक्त जो स्थिति है, वह है समता । वही है वीतरागता । जिसमें समता है, उसका आचरण स्वाभाविक होगा । जिसके मन में विषमता है, उसका आचरण अस्वाभाविक होगा । चारित्र का अर्थ है – समता । इसीलिए चारित्र का सही नाम चुना गया - सामायिक | समय यानी आत्मा । आत्मा में होना, राग-द्वेष में न होना सामायिक है ।
सामायिक से अलग कोई हमारा चारित्र नहीं है और चारित्र से अलग कोई सामायिक नहीं है। मुनि ने आजीवन ऐसे चारित्र को स्वीकारा है । वह बिल्कुल उसी चारित्र में जीएगा, इसलिए उसका सारा जीवन सामायिक बन गया । वह वीतरागता की दिशा में गति करेगा । वीतरागता की कसौटी है - वीतरागता का अनुशीलन करना, वीतरागता के पथ पर चलना, वीतरागता का अनुभव करना । श्रुत धर्म और चरित्र धर्मं की निष्पत्ति है - वीतरागता । यही ध्येय है, यही श्रेय है ।
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