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मंजिल के पड़ाव
बन सकता है ? जो ज्ञान ज्ञानावरण का क्षयोपशम या क्षायिक भाव है, वह मोक्ष का साधन नहीं है। वह तो हमारा स्वरूप है। वह साधना का अंग नहीं है। साधना का अंग है श्रुतज्ञान यानी स्वाध्याय । जहां मोक्ष का मार्ग बताया गया है, वहां ज्ञान का अर्थ है श्रुतज्ञान । नाणं दुआलसंग-द्वादशांगी है श्रुत ज्ञान । श्रुत धर्म भी दो प्रकार का है। सूत्र श्रुत-धर्म और अर्थ श्रुत-धर्म । इसका अर्थ यह है-जो ज्ञान मोक्ष का साधन या धर्म है, वह है--स्वाध्याय करना, श्रुतज्ञान । केवलज्ञान धर्म नहीं है, मोक्ष का साधन भी नहीं है।
दो शब्द प्रचलित हैं-~-उजला लेखे और करणी लेखे । श्रुतज्ञान उजला लेखे धर्म नहीं है। जिसमें निर्जरा हो, संवर हो, उस क्रिया का नाम है धर्म। एक प्रश्न उठाया गया--- सम्यकदर्शनज्ञान-चरित्राणि मोक्षमार्गः-सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चरित्र मोक्ष का मार्ग है । ज्ञान मोक्ष का मार्ग कैसे हो सकता है ? दर्शन के भी आठ आचार हैं। वह मोक्ष का मार्ग है। उन्हें बताया गया-यहां ज्ञान का अर्थ श्रुतज्ञान से है, द्वादशांगी के स्वाध्याय से है । सूत्र को पढ़ना, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, यह है-धर्म। इसके द्वारा विवक्षा की है निर्जरा धर्म की । श्रुत धर्म हमारा निर्जरा धर्म है । स्वाध्याय में केवल शास्त्र का ज्ञान किया गया है। वास्तव में धर्म बनता है आत्म-ज्ञान । जिससे मैत्री का विकास हो, रागद्वेष कम हो, वह ज्ञान आत्म-ज्ञान, शास्त्र का ज्ञान है। आगम का प्रतिपाद्य
संपूर्ण जैनागमों का एक शब्द में प्रतिपाद्य है-वीतरागता । जो वीतरागता की बात नहीं कहता, वह जिन-आगम नहीं है। बहुत सारे ग्रंथ हैं, जिनमें राग-द्वेष को बढ़ाने वाली बातें भी हैं, उनका पाठ श्रुत का स्वाध्याय नहीं माना जाता । एक ओर कहा गया-युद्ध में मरने वाले को सुरांगना मिलती है। भगवान महावीर की भाषा में युद्ध करने वाले नरक में गए हैं। भगवान ने तो यहां तक कहा-शस्त्रों का निर्माण करना ही पाप है, धर्म के विरूद्ध है। यह बात कोई वीतराग ही कह सकता है। जहां इतनी वीतरागता की बात है, वह आगम निर्दोष है। प्रश्न आया-देव, गुरु और धर्म कौन ? हमारे आचार्यों ने कसौटी दी-जिसके हाथ में शस्त्र है, गदा है, वह हमारा देव नहीं हो सकता । जिसके साथ में स्त्री है, वह हमारा देव नहीं हो सकता । स्त्री का होना राग का चिह्न है तथा शस्त्र का होना द्वेष का चिह्न है । आगम हैं वीतरागता के प्रतिपादक इसलिए उनका स्वाध्याय करना धर्म है । स्वाध्याय से बहुत निर्जरा होती है । चारित्र का अर्थ
धर्म का दूसरा स्थान है-चारित्र, भाचरण का। धर्म के आचरण में
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