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________________ धर्म के दो प्रकार धर्मे की परिभाषा धर्म के विषय में बहुत चर्चाएं होती हैं। वस्तुतः जो बात काम की होती है, उसके बारे में बहुत चर्चा की जाती है । ऐसा अनुभव किया गयाधर्म के बिना जीवन अच्छा नहीं चल सकता। प्रश्न है-धर्म आखिर है क्या ? जैन आगमों में भी धर्म की अनेक परिभाषाएं मिलती हैं । परिभाषाओं के पीछे अनेक अपेक्षाएं होती हैं, विशेष दृष्टिकोण होता है और उसके आधार पर परिभाषा की जाती है । स्थानांग सूत्र में धर्म की एक परिभाषा वर्गीकरण के रूप में दी गई है । यह प्राचीन पद्धति रही है .. अमुक तत्त्व का प्रकार बताओ तो परिभाषा निकल आती है। धर्म के संदर्भ में कहा गया-धम्मे दुविहे पण्णत्तेसुयधम्मे चेव, चरित्तधम्मे चेव ।' धर्म के दो प्रकार हैं-श्रुतधर्म और चरित्रधर्म । धर्म की एक परिभाषा बन गई-श्रुत का अनुशीलन करना तथा चरित्र का अभ्यास करना, इसका नाम है धर्म । ज्ञान : अनेक अर्थ ज्ञान का नाम है-श्रुत । ज्ञान के बहुत अर्थ हैं। आगम साहित्य और कुन्दकुन्दाचार्य के साहित्य से ज्ञान के कई अर्थ फलित होते हैं। ज्ञान का एक अर्थ है, जानना । ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुआ, अज्ञान मिटा, ज्ञान प्राप्त हो गया । ज्ञान का दूसरा अर्थ है- अतीन्द्रिय ज्ञान-केवलज्ञान । यह वास्तविक ज्ञान है । बाकी सब काम चलाऊ ज्ञान हैं। सर्वात्मना प्रकाश या मूल ज्ञान है केवलज्ञान । उसमें न कभी संशय होता है, न विपर्यय होता है, न विपरीत ज्ञान होता है। बिल्कुल विशुद्ध और प्रत्यक्ष होता है केवलज्ञान । ज्ञान का एक अर्थ है---भेद-विज्ञान---आत्मा और शरीर को अलग-अलग समझना । यही सम्यग् ज्ञान है । ज्ञान का एक अर्थ है-राग रहित ज्ञान । वह ज्ञान, जिसमें राग-द्वेष का मिश्रण न हो । मोक्ष का साधन है-श्रुतज्ञान प्रश्न है-ज्ञान मोक्ष का साधन है। कौन-सा ज्ञान मोक्ष का साधन १. ठाणं २/१०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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