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मंजिल के पड़ाव
मनन की। इसीलिए कहा गया-शब्द तो तुम पढ़-सुन सकते हो, पर अर्थ की चाबी तो गुरु के पास ही होती है, इसलिए यह दूसरा जो विषय है मनन का, उसकी काफी कमी रहती है। जरूरी है मनन
श्रवण करने के बाद मनन जरूरी है । मनन में समय ज्यादा लगना चाहिए । अध्ययन की पद्धति यह होनी चाहिए-अगर एक घंटा वाचन किया तो तीन घंटे मनन करना चाहिए । तब वह सही अर्थ में अध्ययन कहा जाएगा। इस स्थिति में 'सोच्चा अभिसमेच्चा' पाठ सार्थक हो सकता है। जैसे तेल की एक बूंद पानी से भरे पात्र में फैल जाती है वैसे ही विद्या का प्रसरण भी होता है । जब मनन किया जाता है तब वह संभव बनता है ।
हम केवल ‘सोच्चा' इस सूत्र को न पकड़ें। दो स्थानों से आत्मा बोधि, सम्यक्त्व, संयम-इन सबको प्राप्त करता है। वे दो स्थान हैं-श्रवण और मनन । अर्थ हमेशा शब्द के पीछे छिपा रहता है। जो केवल शब्द को पकड़ता है, अर्थ की आत्मा तक नहीं पहुंचता, वह अनथं को ही जन्म देता है। दोनों प्रयोग साथ-साथ चलते हैं तो चिन्तन के विकास की दृष्टि से, वैचारिक विकास की दृष्टि से बहुत विकास हो सकेगा। विचार का पहला नियम है-जब तक मैं स्पष्ट नहीं समझ लूंगा, तब तक मैं उसको स्वीकार नहीं करूंगा। दूसरा नियम है-- जो भी मैंने सुना है, उसे बांटुंगा । बांटने के बाद जितना काम का बचेगा, उस पर मैं अधिक ध्यान दूंगा । विचार का तीसरा नियम है-मैं पहले सरल बात पर विचार करूंगा। उसके बाद कठिन पर विचार करूंगा । फिर क्रमशः कठिनतर और कठिनतम पर विचार करूंगा। विचार के ये नियम श्रवण और मनन से जुड़े हुए हैं। यदि इन दोनों पर समन्वित ध्यान दिया जाए तो हमारे विकास का मार्ग अधिक प्रशस्त होगा।
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