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________________ श्रवण और मनन जो कुछ मिलता है, उसका एक माध्यम होता है। हमारा दृष्टिकोण बनता है या ज्ञान का विकास होता है, उसका भी एक साधन होता है । यह सहज ही नहीं होता । इसका एक प्रकार और पद्धति है। कैसे जीवन में विकास होता है ? कैसे व्यक्ति अज्ञानी से ज्ञानी बनता है। इसका एक मार्ग है । उस मार्ग को भगवान महावीर ने दो शब्दों में प्रकट किया, वह मार्ग दो चरण वाला है। पहला चरण है सुनना, दूसरा चरण है-जानना, अभिसमन्वय करना। श्रवण : अभिसमन्वय __ सुनना एक मार्ग है, एक कला है। हर आदमी सुनना नहीं जानता, व्यास को इसीलिए कहना पड़ा-'ऊर्ध्वबाहो विरोम्येष, न च कश्चित् शृणोति माम् ।' हाथ ऊंचे करके चिल्ला रहा हूं पर कोई मुझे सुन नहीं रहा है । सुनकर आदमी सीखता है और आगे बढ़ता है । जितना कहा जाता है, उसका बहुत कम माग सुन पाता है आदमी। जब तक गहरी एकाग्रता और उसके साथ सुनने का आकार नहीं बन जाता तब तक बात सुनी नहीं जाती। जब तक श्रोता वक्ता की वाणी के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ लेता तब तक ठीक सुना नहीं जाता। भगवान ने कहा-सुनो, फिर आगे बढ़ो । सुनने के बाद उसका अभिसमन्वय नहीं किया, जो सुना, उसके साथ तादात्म्य नहीं जुड़ा तो जो कुछ भी सुना जाता है, वह सब बेकार हो जाता है। मार्ग पूरा नहीं बनता । श्रवण और अभिसमन्वय-दोनों मिलकर मार्ग बनते हैं। शब्द के लिए अर्थ नहीं है आज की समस्या यह है-बहुत सुना जाता है, बहुत पढ़ा जाता है । वस्तुतः इतना सुनने और पढ़ने की जरूरत भी नहीं है। पढ़ने में अक्षरों का व्यायाम करना ही कोई बड़ी बात नहीं है। प्रत्येक शब्द का अपना हार्द है । जब तक शब्द का वह हृदय समझ में नहीं आता तब तक पढ़ना भी बेकार है । जितने बड़े-बड़े ज्ञानी, विचारक और चिन्तक हुए हैं, उन्होंने कभी भी शब्द को नहीं पकड़ा। वे अर्थ को बोलते हैं । बड़ी मर्म की बात है १. ठारसं २/६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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