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समस्या के दो छोर
का स्पर्श नहीं होगा । इन्द्रिय चेतना की भूमिका में जीने वाला व्यक्ति कभी धर्म को छू नहीं सकता । प्रवृत्ति की बात हमारी समझ में आ जाएगी पर निवृत्ति की बात समझ में नहीं आएगी । इस स्थिति में धर्म के साथ छलना चलेगी । आज जहां भी धर्म की बात आएगी, हमारी भाषा उसका अर्थ बदल देगी ।
पहला प्रहार कहां करें
?
समस्या यह है- - जब तक हिंसा और परिग्रह की चेतना न बदले तब तक व्यक्ति धर्म नहीं सुन सकता और जब तक व्यक्ति धर्म नहीं सुन सकता तब तक हिंसा और परिग्रह की चेतना बदल नहीं सकती । अब इस चक्रव्यूह को तोड़ा कहां से जाए ? यह दुर्भेद्य ग्रन्थि है । दो समस्याओं का ऐसा छोर है, जिसे पकड़ पाना मुश्किल है । इस समस्या पर प्रत्येक व्यक्ति को अपना स्वतंत्र चिन्तन करना पड़ेगा -- इसे तोड़ा कहां से जाए ? कहां पर पहला प्रहार करें ? इसका एक समाधान यह है कि जब व्यक्ति ताप से उत्तप्त होता है, तब पहला प्रहार करे । एक क्षण ऐसा आता है, जिस क्षण आदमी में आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक - ये ताप प्रबल बन जाते हैं | वह क्षण प्रहार करने का होता है । वह क्षण यही है । उस चेतना को बदलने का यही सर्वोत्तम क्षण है । आज के युग में जितना मानसिक संताप है उतना शायद पहले कभी नहीं था । जितनी व्यापारिक दौड़ और होड़ आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी । इस दौड़ और होड़ ने मानसिकता को इतना संतप्त कर दिया है कि आज मनुष्य सब कुछ पा जाने के बाद भी खिन्नता का अनुभव कर रहा है । इस क्षण में ही अहिंसा और अपरिग्रह की बात सुनी जा सकती है ।
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