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मंजिल के पड़ाव
धर्म-स्थान हैं, जिनकी कोई सीमा-रेखा नहीं है। जिन देशों में धर्म को एक अफीम माना गया था, उन देशों में भी नये नये चर्च, मस्जिदें और धर्मस्थान बने हैं । किन्तु चिंतन के बाद यही स्वर उभरता है-धर्म नहीं सुना जा रहा है । यदि कोई मापक यंत्र है तो पता लग जाएगा-धर्मस्थान में जाने वाले पिच्यानवें प्रतिशत लोग मात्र परिग्रह पाने की कामना लेकर ही जाते हैं । बिना कामना जाने वाले पांच प्रतिशत भी मुश्किल से मिलेंगे । चाह को लेकर धर्मस्थानों में जाने वालों की भरमार है पर चाह को छोड़कर जाने वालों की संख्या कितनी है ? हम स्वयं सोचें-अपरिग्रह और आत्मशुद्धि के लिए धर्म सुनने वालों की संख्या कितनी है और कामनापूर्ति के लिए धर्म करने वालों की संख्या कितनी है ? आज सबसे विकट समस्या है-त्याग की चेतना का न जागना । लोभ, लालच, परिग्रह के सीमाकरण की भावना त्याग के बिना नहीं जाग सकती। जटिल समस्या है परिग्रह
प्राणी मात्र के स्वभाव का सबसे दुर्बल पहल है परिग्रह, संग्रह और लालसा। यह जन्मना मानवीय मनोवृत्ति है। अन्य सारी मनोवृत्तियां तो दुर्बल हो जाती हैं पर संग्रह और लालसा की मनोवृत्ति प्रबल होती चली जाती है । संग्रह प्रबल होगा तो हिंसा प्रबल होगी। वह परिग्रह के साथसाथ चलती है। परिग्रह और हिंसा-ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । एक के बिना दूसरा कभी जी नहीं सकता। आज सारी समस्याएं परिग्रह की परिक्रमा कर रही हैं। अगर केन्द्र में से एक परिग्रह को हटा लें तो ऐसा लगेगा-सारी समस्याओं का भवन ढह गया है। महावीर ने अपरिग्रह के लिए सारा जीवन लगा दिया। उन्होंने स्वयं अपरिग्रह का जीवन जीया फिर भी लोगों को अपरिग्रह की बात समझ में नहीं आ सकी। जिसे कभी सुना ही नहीं गया तो वह समझ में कैसे आएगी? इन दो शताब्दियों में इस समस्या ने एक नया रूप लिया । मार्स और एंजिल्स ने परिग्रह की समस्या को सुलझाने का प्रयत्न भी किया पर वह किसी की समझ में नहीं आया । इतनी जटिल समस्या है परिग्रह की। सुना नहीं जा रहा है धर्म
हम इन समस्याओं में संदर्भ में भगवान् महावीर की इस वाणी को पढ़ें-अपरिग्रह को समझने की बात बहुत दूर है, अभी तो यह बात सुनी ही नहीं जा रही है। जब तक हमारी चेतना पर परिग्रह और हिंसा हावी है, तब तक धर्म की बात सुनी नहीं जा सकती। संयम, संवर आदि की तो बात ही क्यों करें ? जब तक अतीन्द्रिय चेतना नहीं जागती तब तक धर्म
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