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मंजिल के पड़ाव
स्वीकृति हो रही है।
यह मानने में कोई कठिनाई नहीं है-इस शताब्दी के दो चार व्यक्तियों ने मानवीय चिन्तन को बहुत प्रभावित किया । डाविन, मार्स और फ्रायड-ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं, जिनसे युग का चिन्तन प्रभावित हुआ है। अनेक लोगों के विचार डगमगा गए, श्रद्धा विचलित हो गई । ये वैचारिक द्वन्द्व और दार्शनिक अवधारणाएं सचमुच व्यक्ति को हिला देती हैं, उसकी श्रद्धा को प्रकंपित कर देती हैं। धर्म का स्रोत है अभय
एक ओर भय के कारण धर्म-स्वीकृति की बात कही गई, दूसरी ओर महावीर कहते हैं-धर्म का आदि सूत्र है अभय । अहिंसा के सिद्धान्त के साथ अभय का सिद्धान्त जुड़ा हुआ है। अगर अभय की ऊर्वरा नहीं है तो अहिंसा का बीज बोया नहीं जा सकता। अहिंसा का बीज बोना है तो अभय की ऊर्वरा को तैयार करना पड़ेगा। महावीर का पहला सूत्र था-डरो मत । न रोग से डरो, न बुढ़ापे और मौत से डरो, न भूत और बेताल से डरो। इस स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है-धर्म की प्रेरणा भय के कारण होती है । वास्तव में धर्म का सबसे बड़ा स्रोत है अभय । जिस व्यक्ति के मन में अभय की चेतना नहीं जागी, वह कैसा धार्मिक होगा? एकपक्षीय है विचार
हम किसी विचार को समग्र न मार्ने । विचार गलत होता है, हम यह न माने पर वह एकपक्षीय होता है, यह अवश्य माना जा सकता है। महावीर ने अनेकान्त के संदर्भ में कहा-विचार एक पक्ष है। उसे समग्र मानकर अटक जाओगे तो भटक जाओगे। हम किसी विचार को समन या परिपूर्ण न मानें । धर्म का विचार है या और कोई विचार है, किसी भी प्रकार के विचार को समग्र न मानें । कोई भी विचार परिपूर्ण नहीं होता। विचार का अर्थ है एक कोण । वही विचार भटकाता है, जो एक को समग्र मान लिए जाने का चिन्तन देता है। हम खण्ड को खण्ड मानें तो भटकाव नहीं होगा। अनेकान्त और श्रद्धा
शंकराचार्य ने कहा-'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।' इस विचार की जैनाचार्यों ने बड़ी आलोचना की है । यदि नय दृष्टि से विचार करें तो कहा जा सकता है-जगत् मिथ्या ही है। जब पर्याय था तब सत्य था। जब पर्याय बदल जाता है तब मिथ्या हो जाता है। विचार सापेक्ष होता है । जब हम अपेक्षा-भेद को भुला देते हैं तब समस्या उलझ जाती है।
जब सत्य के प्रति निष्ठा जागती है तब श्रद्धा प्रबल होती है। श्रद्धा
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