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श्रद्धा घनीभूत कैसे रहे ?
थोड़ा सा सहारा लिया जा सकता है । अपना अस्तित्व है बुद्धि | उसका काम है निश्चय करना, व्यवसाय करना । विवेक बुद्धि का ही एक पर्याय है । ! विवेचन करना, पृथक्करण और निर्धारण करना —- इन सबका स्रोत है
बुद्धि
ज्ञान और श्रद्धा
हम बुद्धि से काम लें, फिर हमारी श्रद्धा घनीभूत होगी। अज्ञान में कभी श्रद्धा नहीं होती । अज्ञान में उपजी श्रद्धा भ्रम है । पहले ज्ञान फिर श्रद्धा - क्रम यही है । पहले श्रद्धा और फिर ज्ञान, यह कभी नहीं होता । ज्ञान के बाद श्रद्धा और फिर श्रद्धा के बाद ज्ञान --- यह चक्र चलता है । ज्ञान अधिक होगा तो श्रद्धा भी अधिक हो जाएगी किन्तु ज्ञान के बिना कभी श्रद्धा पैदा नहीं होती । यदि ज्ञान के बिना श्रद्धा पैदा होती तो एक भैंस भी श्रद्धालु बन जाती; घोड़ा और गधा भी श्रद्धालु बन जाता किन्तु ऐसा होता नहीं है ।
श्रद्धा है घनीभूत इच्छा
श्रद्धा - आस्था हमारा एक अनुबंध है । जो चीज हमारे लिए उपयोगी, लाभदायी और हितकारी होती है, उसके प्रति हमारा आकर्षण पैदा हो जाता है | आकर्षण पैदा हुआ और श्रद्धा जाग गई । घनीभूत इच्छा या घनीभूत आकर्षण, इसका मतलब है श्रद्धा । पहले हम जानते हैं, फिर श्रद्धा पैदा होती है । विचार श्रद्धा में बाधा भी डालता है, सहयोग भी करता है । विचार की खटिया के इतने पाए हैं, जिनकी गिनती नहीं की जा सकती । मैंने देखाबहुत सारे लोग धार्मिक श्रद्धा से विचलित हो गए । उन्होंने कहा- अब साम्यवाद माने वाला है, सारे धर्मं समाप्त हो जाएंगे । साम्यवाद की ऐसी लहर चली, हजारों-हजारों भारतीय उसके प्रति श्रद्धाशील बन गए । जब साम्यवाद अस्तित्व में आया, लोगों ने कहा- महाराज ! अब धर्म-कर्म थोड़े दिनों का है । ऐसा समय आने वाला है, जब धर्म का कोई नाम लेवा भी नहीं रहेगा ।
धर्म की स्वीकृति क्यों ?
दिल्ली में आचार्यश्री से विचारकों ने पूछा - आचार्यश्री ! क्या साम्यवाद बाएगा ? आचार्यश्री ने दो टूक भाषा में कहा - यदि आप बुलाएंगे तो अवश्य आएगा । सबके मन में एक आंदोलन था - साम्यवाद का न जाने क्या परिणाम आएगा ? मार्क्स और एंजेन्स ने यह स्पष्ट घोषणा की थीधर्मं भय के कारण होता है । धर्म न करने वाला नरक में जाता है । यहां से परलोक जाना होगा । ईश्वर के दरबार में पूछा जाएगा तो क्या उत्तर देगा ? ऐसा भय समाज में बिठा दिया गया, इस भय के कारण धर्म की
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