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सब कुछ कहा नहीं जाता
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बहुं सुणेइ कणेहि, बहुं मच्छोहिं पेच्छइ । __ न य विट्ठ सुयं सवं, भिक्खु अक्खाउमरिहह ॥
मुनि गृहस्थ नहीं है। उसने मर्यादा को स्वीकार किया है । वाक्संयम और भाषा समिति का पालन उसका धर्म है। उसके लिये ये निर्देश महत्त्वपूर्ण हैं-वचन गुप्ति करो, बोलो मत । यदि बोलना जरूरी है तो भाषा समिति से बोलो, परीक्ष्यभाषी होकर बोलो । भिक्षु के लिए यह मर्यादा है—किसी बात को कानों से सुना है, किसी बात को आंखों से देखा है तो वह उसे प्रगट कर दे। यह बात बहुत काम की है। छलकती है गगरी
गगरी छलके बिना रहती नहीं है। समुद्र भरा होता है, उससे खतरा नहीं होता। समुद्र में ज्वार आता है पर वह भी मर्यादा के साथ आता है । सागर की सी गंभीरता जीवन में आती है तब बडप्पन आता है । सागर के समान गंभीर बनने के लिए यह निर्देश दिया गया-अवक्तव्य का मूल्यांकन करो । सागर और गगरी में बहुत फर्क होता है । जो सागर के समान होता है, वह गंभीर होता है, देखी सुनी बातों को पचाने में समर्थ होता है । जो गगरी के समान होता है, वह छिछली मनोवृत्ति का होता है, वह देखी या सुनी बात को लम्बे समय तक पचा नहीं सकता। जरूरी है अवक्तव्य का बोध
व्यवहार और आचार के क्षेत्र में अवक्तव्य की सीमा का बोध जरूरी है। कितना वक्तव्य है और कितना अवक्तव्य है ? क्या वक्तव्य है और क्या अवक्तव्य है ? यह भेद समझना जरूरी है । दर्शन के क्षेत्र में अवक्तव्य है पदार्थ क्योंकि वह अनन्त धर्मात्मक है। भाषा उसके समस्त अंशों का एक प्रतिपादन नहीं कर सकती । आचार के क्षेत्र में जो दृष्ट है, श्रुत है, वह भी अवक्तव्य है । यह आचार मीमांसा के क्षेत्र में उपयोगी है।
अवक्तव्यः पवार्थश्चानंतधर्मात्मको यतः । एतत् पदार्थमीमांसाक्षेत्रे व्यवहृतं भवेत् ॥ अवक्तव्यमिदं दृष्टं, श्रुतं सर्व न कथ्यताम्।
एतदाचारमीमांसा क्षेत्रे स्यादुपयोजितम् ॥ जब यह अवक्तव्य की सीमा समझ में आएगी तब साधुता जीवन में अवतरित होगी। यह बोध केवल एक भिक्षु के लिए ही नहीं, एक सामान्य व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है। जो व्यक्ति वक्तव्य और अवक्तव्य की सीमा को नहीं समझता, वह बड़ा अनर्थ कर देता है। इस प्रकार की मनोवृत्ति वाला इन्द्रजाल जैसा घटित कर देता है। इससे
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