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संबंध है संवेग से
बहुत महत्त्व है अवक्तव्य का । दर्शन के क्षेत्र में अवक्तव्य चल सकता है पर व्यवहार के क्षेत्र में वह बड़ी समस्या है । पता नहीं मनुष्य की कैसी मनोवृत्ति है कि उससे बात कहे बिना रहा नहीं जाता । एक ओर कहा गयासब कुछ कहा नहीं जा सकता, दूसरी ओर समस्या यह है - कहे बिना रहा नहीं जाता । वक्तव्य और अवक्तव्य के पीछे जो काम करता है, वह है हमारा आवेश । जब आवेश प्रबल बनता है तब अवक्तव्य कहां टिक पाएगा ? जो व्यक्ति अपने आवेग - आवेश का संवरण करना जानता है, सीमा करना जानता है, उसके लिए वक्तव्य और अवक्तव्य की सीमा बन जाती है । वाणी के साथ मूल संबंध है संवेगों का, आवेश और इमोशन्स का । जिसने आवेग - आवेश पर नियंत्रण का सिद्धान्त सीखा है, उसके लिए अवक्तव्य का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण होगा | जिसने नियंत्रण करना नहीं सीखा, उसके लिए अवक्तव्य की बात समाप्त हो जाती है । जब कभी दंगा-फसाद होता है तब यह प्रचार किया जाता है— अफवाहों पर ध्यान न दें । ऐसी विचित्र अफवाहें फैलाई जाती हैं, जिनके सिर-पैर नहीं होता । अफवाहें वे लोग फैलाते हैं, जिनका अपने आवेगों पर नियंत्रण नहीं होता ।
मंजिल के पड़ाव
वक्तव्य की मर्यादा
महत्त्वपूर्ण निर्देश है— सब कुछ कहो मत । एक स्थिति यह है- सब कुछ नहीं जानते इसीलिए कहो मत । आचारशास्त्र का विधान है - सब कुछ जानते हो फिर भी सब कुछ कहा नहीं जा सकता । कितना कहो, कब कहो, कहां कहो, कैसे कहो, क्या कहो ? ये सब बातें हमारे लिए मननीय हैं । कितना करें, इसका विवेक जरूरी है । हमने जो सुना है, वह इतना है कि पांच पृष्ठ भर जाए पर कहना कितना चाहिए। उसमें कहने की बात केवल पांच पंक्तियां ही हो सकती हैं । शेष सबको हजम कर कब कहें, इसका भी बहुत महत्त्व है । उपयुक्त समय पर ही कोई बात कही जा सकती है । कहने का तरीका भी होना चाहिए। ये सारी मर्यादाएं वक्तव्य के साथ जुड़ी हुई हैं । इन मर्यादाओं को समझे बिना अवक्तव्य के सिद्धान्त की सम्यग् अनुपालना नहीं हो सकती ।
लो, पचा लो ।
भिक्षु की मर्यादा
मुनि के लिए एक बहुत बड़ा विवेक दिया गया - मुनि कानों से बहुत सुनता है, आंखों से बहुत देखता है किन्तु सब देखे और सुने को कहना उचित नहीं है'
१. दसवे आलियं ८२०
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