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________________ १८० मंजिल के पड़ाव किन्तु आचार्य भिक्षु आग्रह की भाषा में नहीं बोलते थे। उन्होंने विभज्यवादी शैली में अनेकांत का अधिकतम प्रयोग किया। एक अर्थ में आचार्य भिक्षु को विभज्यवादी शैली का प्रवक्ता कहा जा सकता है। आचार्य भिक्षु ने कहा--- मैंने श्वेताम्बर भागमों के आधार पर मुनित्व स्वीकारा है। मेरा श्वेताम्बर आगमों में विश्वास है। यदि मेरा विश्वास बदल जाए तो मुझे दिगम्बर बनने में कोई कठिनाई नहीं है । उस दिन मैं वस्त्र छोड़ सकता हूं। यह अनाग्रह की भाषा है। आग्रह की भाषा में दिया जाने वाला उत्तर शालीन भाषा का उत्तर नहीं हो सकता। वह एक प्रतिक्रिया पैदा करता है । अनेकांत की भाषा प्रतिक्रिया पैदा नहीं करती किन्तु सामने वाले व्यक्ति को सोचने के लिए विवश करती है। वह भाषा अच्छी होती है, जिसमें सामने वाले को सोचने के लिए बाध्य होना पड़े। वह भाषा अच्छी नहीं होती, जिसमें व्यक्ति को सोचने का मौका ही न मिले और प्रतिक्रिया में समस्या उलझ जाए। माया का प्रयोग न हो भाषा का दूसरा विवेक है-वाणी में माया का प्रयोग न हो। छलना और वंचनापूर्ण वाणी एक हितैषी व्यक्ति के लिए अच्छी नहीं होती। जो व्यक्ति अपनी बात को सरलता से कहता है, वह समाज में आदरास्पद होता है । जो माया या प्रवंचना करता है, उसका कोई विश्वास नहीं करता। भगवान् महावीर ने कहा-वाणी के साथ माया का प्रयोग कभी मत करो। उपधातकारिणी न हो भाषा का तीसरा विवेक है-हिंसा युक्त वाणी का प्रयोग मत करो। जो बात सत्य है उसका भी प्रयोग मत करो यदि दूसरा उससे उपहत होता है। दूसरों के प्राणों को आघात पहुंचे, वैसे सत्य का भी प्रयोग मत करो।' उपघातजनक वाणी का प्रयोग श्रेयस्कर नहीं होता तहेव फरसा भासा, गुरुमूओवघाइणी । सच्चा वि सा न वत्तब्वा, जओ पावस्स आगमो॥ हितकारिणी हो भाषा भाषा का चौथा विवेक है---वाणी ऐसी बोलनी चाहिए, जिससे दूसरों का हित हो, अहित न हो । अहितकारी बात नहीं बोलनी चाहिए एएणन्नेण वढेण, परो जेणुवहम्मई । आयारभावदोसन्न, न तं भासेज्जपन्न । जहां एक सामान्य बात से दूसरे का अहित हो जाता है वहां मौन रहना १. वसव आलियं ७/१ २. दसवेआलियं ७/१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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