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भाषा - विवेक के छह सूत्र
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समाज संरचना में इसकी महती भूमिका है । हम इसका उपयोग कैसे करें ? . इस उपयोग को जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने नए-नए आयाम दिए हैं । जैन दर्शन में भाषा के बारे में जितना सूक्ष्मता से चिन्तन किया है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है । वैसे तो प्रत्येक धर्म में वाणी के संदर्भ में विचार किया गया है । नीतिशास्त्र में कहा गया - सत्यं ब्रूयात् प्रिय ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियं - सच बोलो, प्रिय बोलो पर ऐसा सत्य मत बोलो, जो अप्रिय हो ।
अनेकांत का प्रयोग
इस प्रकार वाणी के कुछ निर्देश मिलते हैं किन्तु जैन दर्शन में वाणी के संदर्भ में कुछ नए निर्देश हैं ।
आग्रहो नंव नो माया, नो हिंसा नाहितं भवेत् । नो निश्चयः संदिहाने, परीक्षासौ वचो गता ॥
भाषा में आग्रह और माया नहीं होनी चाहिए वह अहिंसक और हितकारी होनी चाहिए, निश्चयात्मक और अपरीक्षित नहीं होनी चाहिए । पहला निर्देश है अनेकांत का । बोलो तो अनेकांत के साथ बोलो । आग्रह की भाषा में मत बोलो । यदि कोई अपने लेखन और वक्तृत्व को अच्छा बनाना चाहे तो उसे अनेकांत का आलंबन अवश्य लेना चाहिए । इससे वक्तृत्व और लेखन की शैली बहुत परिष्कृत हो जाएगी। जो एकांत भाषा में बोला या लिखा जाता है, वह बहुत काम्य नहीं होता । अनाग्रह की भाषा बहुत काम्य होती । विदेशी लेखकों ने जाने अनजाने अपनी लेखनी में अनेकांत क बहुत प्रयोग किया है । उनके लेखन में बहुत विनम्रता है, आग्रह और पकड़ कहीं भी नहीं झलकती है । उनकी अभिव्यक्ति बहुत ही कमनीय, सौम्य और अनाग्रहपूर्ण होती है । वस्तुतः ऐसी पकड़ होनी नहीं चाहिए, जिसमें लचीलापन न रहे । अनेकांत में अनाग्रह होता है, लचीलापन होता है, पकड़ नहीं होती । अपनी बात भी कह दी जाती है और सामने वाले को भी कष्ट नहीं होता ।
अनाग्रह की भाषा : निदर्शन
भाषा का पहला विवेक है अनेकांत का प्रयोग । हम भाषा में अनेकांत या अनाग्रह का प्रयोग करें तो उलझन नहीं आएगी, वह किसी के लिए कष्टदायी नहीं होगी। कुछ लोग आचार्य भिक्षु के पास आए। उन्होंने कहामहाराज ! आप बुद्धिमान् हैं, आपमें तार्किक शक्ति है, आप विलक्षण हैं, सब कुछ ठीक है | यदि आप एक काम करें, वस्त्रों को छोड़ दें, तो कितना अच्छा हो जाए। आप दिगम्बर परम्परा को स्वीकार कर लें तो हजारों-हजारों लोगों का कल्याण हो जाए। इस प्रश्न का सीधा उत्तर दिया जा सकता था
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