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ज्ञान बड़ा या आचार ?
शिष्य की जिज्ञासा
शीतकाल में घना कुहासा छाया रहता है। ऐसा ही कुहासा कभीकभी मन में भी छा जाता है । कुहासे में सूर्य की रोशनी की, प्रकाश की रश्मि की आवश्यकता होती है । मन के कुहासे को लेकर शिष्य गुरु के पास पहुंचा । शिष्य ने निवेदन किया---गुरुदेव ! कोई कहता है-ज्ञान बड़ा है और कोई कहता है-आचार बड़ा है। इनमें कौन-सा प्रधान है ? दो दार्शनिक धाराएं हैं। एक है ज्ञानवादी धारा, वह आचार को महत्त्व नहीं देती । दूसरी धारा है आचारवादी, वह ज्ञान को महत्त्व नहीं देती । उसका मानना है-आचार ही सब कुछ है । ज्ञान से क्या होगा? आप बताएंसचाई क्या है ? गुरु का समाधान
गुरु ने कहा-वत्स ! तुम इस विवाद में मत जाओ कि ज्ञान बड़ा है या आचार । दोनों ही समान हैं । न कोई मुख्य है और न कोई गौण
ज्ञानं मुख्यं प्रभो ! यद् वा, मुख्य भाचार उच्यते ।
द्वयोस्तुला न गौणत्वं, मुख्यत्वं कस्यचिद् भवेत् ॥ गुरुदेव ! दोनों समान कैसे हैं ?
वत्स ! ज्ञान के बिना आचार का और आचार के बिना ज्ञान का बहुत महत्त्व नहीं है
ज्ञानमाचारशून्यं तु, पत्रादिविकलस्तरुः । आचारो ज्ञानशून्यस्त, मूलशून्यः स कल्पते ॥ ज्ञानं मूलं रसस्रोतः आचारः फलमिष्यते ।
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च, तथौदासीन्यमुच्छ्रितम् ॥ जो आचारशून्य ज्ञान है, वह पत्र, फल और फूल से रहित पेड़ जैसा है। ज्ञान है और आचार नहीं है, तो ज्ञान भी कोरा ढूंठ बन जाएगा। जो भाचार ज्ञानशून्य है, वह बिना जड़ के पेड़ जैसा है। यदि जड़ ही नहीं है तो पत्र, फल और फूल कहां से आएंगे? इसलिए ज्ञान और आचारदोनों को विभाजित मत करो।
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