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मंजिल के पड़ाव
एक फल : एक मूल शिष्य ने जिज्ञासा की-गुरुदेव ! भगवान् महावीर ने कहा
पढमं नाणं तओ दया, एवं चिटुइ सव्वसंजए।
अन्नाणी किं काही, किं वा नाहिई छेयपावगं ॥ पहले ज्ञान है फिर आचार। अज्ञानी क्या करेगा ? वह क्या जानेगा-क्या श्रेय है और क्या पाप ?
जब ज्ञान प्रथम है तब वह मुख्य हो गया। आचार का नम्बर दूसरा है । क्या वह गौण नहीं है ?
गुरु ने कहा-वत्स ! हम न तो ज्ञानवादी हैं और न आचारवादी । हम उभयवादी हैं, ज्ञान और आचार-दोनों का समन्वय करते हैं। दोनों एक साथ चलते हैं । इन दोनों को तोड़ा नहीं जा सकता। न कोई प्रधान है और न कोई गौण । 'पढम' कहने का अर्थ क्या है, इसे समझो । जो कहा गया है, उसमें गौणता और मुख्यता की बात नहीं है । यह कहा गयापहले मूल होता है या फल ? पहले जड़ होती है। उसको पोषण अच्छा मिलता है, तो फल भी अच्छा मिलेगा। एक फल है और एक मूल-यह दोनों का सम्बन्ध है । इन्हें कभी अलग नहीं किया जा सकता। पूरक हैं एक दूसरे के
तीन शब्द हैं-प्रमाण, प्रमाता और प्रमिति । प्रमिति का अर्थ है प्रमाण का फल-प्रमाणस्य फलं प्रमितिः । प्रमाण का फल क्या है ? प्रमाण के तीन फल हैं-हित में प्रवृति, अहित से निवृत्ति और औदासीन्य । केवल ज्ञान का फल है औदासीन्य । केवल ज्ञान हो जाता है तब प्रवृत्ति-निवृत्ति की बात छूट जाती है। केवली के लिए आचार क्या रहा ? ज्ञान का फल है ज्ञप्ति । क्या हम यह कहें-जड़ बड़ी होती है और फल छोटा? जड़ काम क्या आती है ? समाज फल को खाएगा या जड़ को खाएगा ? केला, संतरा आदि फल खाते हैं या इनकी जड़ को खाया जाता है ? हमारा सम्बन्ध होता है फल के साथ । इस दृष्टि से विचार करें तो बड़ा होगा आचार। एक व्यक्ति बहुत पढ़ा लिखा है, ज्ञानी है, पर आचारवान् नहीं है। वह परिवार में कलह करता रहता है । मां-बाप कहेंगे---इतना पढ़ा-लिखा, क्या काम आया ? क्या यही सीखा है ? उसका ज्ञान उपहास का कारण बन जाएगा।
ज्ञान और आचार-दोनों में इतना गहरा सम्बन्ध है कि हम न आचार को प्रथम कह सकते हैं और न ज्ञान को प्रथम कह सकते हैं । न ज्ञान को गौण मान सकते हैं और न आचार को गौण मान सकते हैं। हमारी दृष्टि में दोनों बराबर हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं । १. दसवेआलियं ४/१०
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