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________________ पाप उससे डरता है अध्यात्मवाद और कर्मवाद जहां आत्मवाद की अवधारणा है वहां कर्म का एक अर्थ है। वह बिचौला, दलाल या नौकर नहीं है। उसका अपना अस्तित्व है। आत्मवादी दर्शन में यह स्वीकार किया गया-कहीं-कहीं कर्म बलवान् होता है और कहीं-कहीं जीव । आत्मा की सत्ता से भी कर्म की सत्ता को बलवान् मान लिया गया। वहां कर्मवाद की एक सत्ता होती है, एक अर्थ होता है । जब कर्म का अर्थ होता है तब व्यक्ति को यह सोचने का मौका मिलता है-ऐसा आचरण करूं, जिसके पाप कर्म का बंध न हो। क्या ईश्वरवादी को यह चिन्ता होती है ? वह सोचता है-मुझे ईश्वर की कृपा मिल गई अब चाहे सो करूं । ईश्वरवादी के लिए सबसे बड़ी साधना कोई हो सकती है तो वह यह है-ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करना, उसे प्रसन्न करना । ईश्वर की कृपा मिल जाए तो सौ हाथ की सोड में सोओ, किन्तु एक आत्मवादी किसी की कृपा पर निर्भर नहीं रहता । उसका अपना सिद्धांत होगा-सब आत्माओं को अपने समान समझना । महावीर और बुद्ध का स्वर यही कारण है-ईश्वरवादी दर्शनों में उपासना, भक्तिवाद, ईश्वरस्तुति- इन बातों पर अधिक बल दिया गया । भगवान् महावीर और बुद्ध ने इन बातों पर बल नहीं दिया, क्योंकि उन्हें किसी की कृपा को प्राप्त नहीं करना था । महावीर का स्वर था अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ ।। बुद्ध का स्वर रहा-'अप्पदीवो भव'-आत्मदीप बनो। ये सारे सूत्र कर्मवाद के आधार-सूत्र हैं। जहां सारा दायित्व व्यक्ति पर आ जाता है, वहीं कर्मवाद की बात सार्थक हो सकती है। यदि हम सूक्ष्मता से दार्शनिक धारा पर विचार करें तो यह प्रतीत होगा--भूतात्मभूतवाद का सिद्धांत ईश्वरवादी मान्यता में नहीं आना चाहिए, गीता में यह श्लोक नहीं आना चाहिए। किन्तु गीता को एक ऐसा समाहार ग्रंथ बना लिया, जिसमें सब धर्मों के विचार दिए। यदि मीमांसा करें तो यह विचार ईश्वरवादी दर्शन का नहीं हो सकता । यह विचार भात्मवादी या कर्तृत्ववादी दर्शन का हो सकता है । प्रत्यक्षानुभव जागे जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है । उसे एक महान् सिद्धांत मिला हैआत्मा है, आत्मा कर्म की कर्ता है, आत्मा स्वतंत्र है, वह स्वयं कर्म-फल को भोगता है और स्वयं ही उनको तोड़ने वाला है। इस सारे परिप्रेक्ष्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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