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मंजिल के पड़ाव चेतना निश्छिद्र बने
हम इस भूमिका पर विचार करें । चेतना की उस स्थिति का निर्माण किया जा सकता है, जिसमें पाप लगना ही बंद हो जाए । एक नौका या जहाज समुद्र में चलता है । वह डूबता नहीं है, पार चला जाता है । उसका कारण क्या है ? कारण यही है-उसमें छेद नहीं है। इसी प्रकार जिसने चेतना को निश्छिद्र बना लिया है, वह संसार समुद्र में रहता हुआ भी डबता नहीं है। उसके भीतर पाप का जल प्रवेश नहीं कर पाएगा। यह स्थिति तभी बनती है, जब हम चेतना को निश्छिद्र बना सकें। उस समय नौका चल रही है या ठहरी हुई है पर वह डूबेगी नहीं। यही स्थिति निश्छिद्र चेतना की होती है । वह स्थिर है या काम कर रही है, उसके पाप कर्म का बंध नहीं होता । कर्मवाद के विकास का प्रश्न
इस सन्दर्भ में जो आधारभूत सिद्धांत है, वह सर्वभूतात्मवाद का है । वह कर्मवाद से जुड़ा हुआ सिद्धांत है, कर्तृत्व से जुड़ा हुआ सिद्धांत है । ईश्वरवाद, आत्मकर्तृत्ववाद और कर्मवाद-ये तीन दार्शनिक तत्त्व हैं । ईश्वरवादी भी कर्म को स्वीकार करते हैं और आत्मवादी भी कर्मवाद को स्वीकार करते हैं । प्रश्न है-कर्मवाद का विकास किस दर्शन ने किया ? यदि ईश्वर कर्ता है तो कर्म को बीच में लाने की आवश्यकता ही नहीं थी। पर कर्मवाद को लाया गया और वह भी बहुत कमजोर रूप में । ईश्वरवाद में कर्मवाद का विशेष अर्थ नहीं रहता है । एक ऐसा लचीला माध्यम अपना लिया गया, जो ज्यादा काम का नहीं है । ईश्वरवाद और कर्मवाद
वस्तुतः कर्मवाद वहीं सार्थक हो सकता है, जहां कर्तत्व अपना है। अपना कर्तृत्व नहीं है तो अपना कर्म भी नहीं है। जब सीधा सम्बन्ध ईश्वर पर आ जाता है, तब कर्मवाद गौण हो जाता है । आदमी इस भाषा में बोलता है-'हमें इस काम में क्यों लगाया? इस हिंसा या बुराई के काम में कहां फंसाया है ।' कर्म एक नौकर जैसा ही है, जिसका काम इतना ही है-मालिक ने जो कहा, वह कर दिया। जहां भेजा, वहां चला गया। उसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है । जब कर्म को हम ऐसा नौकर बना लें, वह तीसरी सत्ता हो जाए तब क्या होगा ? मूल सत्ता है ईश्वरीय सत्ता, दूसरी ओर है व्यक्ति । इन दोनों के बीच कर्म ऐसा आ गया, जो कुछ कर ही नहीं पा रहा है। यदि कर्म समझदार होता तो वह बीच में रहता ही नहीं, वह मौन हो जाता या त्यागपत्र देकर हट जाता।
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