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________________ पाप उससे डरता है १६७ बन सकते हैं ? बहुत कठिन साधना है। पांच महाव्रत की साधना हो या बारह व्रत की या ध्यान की साधना की हो । सबसे कठिन साधना है सर्वभूतात्मभूतवाद की । जब आदमी में थोड़ा-सा स्वार्थ जागता है तब वह अपने आपको बचा लेता है। व्यक्ति की मनोवृत्ति ऐसी विचित्र है कि वह सोचता ही नहीं है-दूसरे का क्या होगा? वह अपने परिवार का भी नहीं सोचता। सबसे पहले अपने आपको बचाना चाहता है। जहां इतना स्वार्थवाद होता है वहां सर्वभूतात्मवाद की साधना नहीं की जा सकती। गीता का स्वर गीता में कहा गया है-जो योगयुक्त आत्मा है, विजितात्मा है, शुद्धात्मा है, सब जीवों को अपने समान अनुभव करता है, वह करता हुआ भी लिप्त नहीं होता' योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मजितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते ।। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया-जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यग् दृष्टि से देखता है, जो आश्रव का निरोध कर चुका है, जो दांत है, वह पाप कर्म का बंध नहीं करता-२ सम्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥ तात्पर्य एक है दशवकालिक और गीता-दोनों में जो कहा गया है, उसका तात्पर्य एक ही है । इस बात को पकड़ लिया गया-मैं अनासक्त भाव से कर्म करता हूं। मुझे कोई दोष नहीं लगता । गीता का शब्द है-कुर्वन्नपि न लिप्यते और दशवकालिक का कथन है-पावं कम्मं न बंधई। इन शब्दों को पकड़ लिया पर इनके पीछे जो विशेषण हैं, उन पर ध्यान नहीं दिया। यदि चेतना की वह भूमिका बन जाए तो यह बात ठीक हो सकती है। वह भूमिका नहीं है और व्यक्ति यह कहे-मैं करता हुआ भी लिप्त नहीं होता तो यह एक विडंबना ही कहलाएगी। जो चेतना उस भूमिका पर पहुंची हुई है, वह करता हुआ भी लिप्त नहीं होता, उसके कर्म का बंध नहीं होता, पाप उससे दूर भागता है । हम इन विशेषणों पर ध्यान दें-जो सबको अपने समान समझता है, जिसने आस्रवों को रोक दिया है, जो दांत-जितेन्द्रिय है, वह कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । विशुद्धता, जितेन्द्रियता, सर्वभूतात्मभूतता-ये सारे शब्द भी मिल जाते हैं। इन दोनो श्लोकों को एक ही तुला पर तोला जा सकता है। १. गीता ५/७ २. दसवेआलियं ४/९ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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