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________________ मजिल के पड़ाव कर्तृत्वं नात्मनश्चास्ति, कर्मणः किं प्रयोजनम् । कर्तृत्वमात्मनश्चेत् स्याद्, कर्म तत् सार्थकं भवेत् ॥ प्रधानमात्मकर्तृत्वं, प्राधान्यं नैव कर्मणाम् । आत्मकर्तृत्ववादो हि, सिद्धांत: आत्मवादिनाम् ॥ सर्वभूतात्मवाद आत्मवाद का एक सिद्धांत है-सर्वभूतात्मवाद । सब मात्माओं को अपनी आत्मा के समान समझो, अनुभव करो। यह सिद्धांत बहुत परिचित हो गया इसीलिए अर्थ की गंभीरता तक पहुंचने का प्रयत्न नहीं हो रहा है । आत्मवादी या अनीश्वरवादी के लिए इससे बड़ा कोई सिद्धांत नहीं हो सकता । जितने भी पाप बतलाए गए हैं, वे इस सिद्धांत की अनुपालना होने पर पास ही नहीं आते हैं। एक पाप है प्राणातिपात। यह बहुत छोटे अर्थ का सूचक बन गया । इसका अर्थ इतना ही है-किसी को मत मारो। जो अठारह पाप हैं, वे एक प्रकार से प्राणातिपात की व्याख्या हैं। विषमता में पनपते हैं पाप सर्वभूतात्मवाद शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण है । इसमें अर्थ का गांभीर्य है। एक व्यक्ति ने अपनी पूरी स्वतन्त्रता के साथ स्वीकार कर लिया-सब आत्माएं मेरे समान हैं। यदि यह बात उसकी अंतरात्मा में प्रविष्ट हो गई तो क्या वह झूठ बोलेगा? वह झूठ क्यों बोलेगा ? ये सारे पाप विषमता में पनपते हैं । जहां समानता की अनुभूति नहीं है, आत्मिक विषमता है, वहां व्यक्ति झूठ बोलता है। यदि समानता की गहरी अनुभूति हो गई तो झूठ बोलने का अर्थ ही समाप्त हो जाएगा । आदमी झूठ बोलता है भय से, किसी वस्तु को छिपाने के लिए या किसी को धोखा देने के लिए । भय आ गया, इसका अर्थ है-दूसरे को अपने समान समझा नहीं । समानता में कभी भय नहीं होता । क्रोध आता है असमान के प्रति । समान के प्रति कभी क्रोध नहीं आता। ये सारे कारण आत्मा की विषमता की परिस्थिति में पैदा होते हैं। जब आत्मा की समानता की गहरी अनुभूति हो गई तब झूठ या अपराध का प्रश्न ही नहीं आएगा। पाप कब करेगा ? यह बहुत बड़ा सिद्धांत है सर्वभूतात्मवाद का। बहुत छोटे परिवेश में यह सिद्धांत दिया गया पर इसकी साधना बहुत जटिल है। क्या कोई कह सकता है-मैंने सब आत्मा को समझने की साधना की है या प्रारम्भ कर दी है । व्यक्ति से पाप डरेगा, दूर भागेगा पर ऐसा कब होगा ? जब यह समानता की साधना सध जाए, यह मंत्र सिद्ध हो जाए तब पाप व्यक्ति से दूर ही रहता है । जब मंत्र सिद्ध होता ही नहीं है तब ज्वार के मोती कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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