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________________ पाप उससे डरता है समूचे विश्व के धर्मों का वर्गीकरण करें तो उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है-ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी । धर्मों की बहुत बड़ी संख्या ईश्वरवादी है, ईश्वर को मानकर चलने वालों की है । संख्या की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा धर्म ईसाई धर्म है। वह ईश्वरवादी धर्म है । इस्लाम धर्म भी ईश्वरवादी है । भारतीय धर्मों में भी अधिकांश ईश्वरवादी या ब्रह्मवादी धर्म हैं। जैन और बौद्ध-ये दो ऐसे धर्म हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । जो ईश्वर को स्वीकार करते हैं, उनके लिए आचार-संहिता एक प्रकार की होगी। जो ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, उनके लिए आचार-संहिता दूसरे प्रकार की होगी। जितने सिद्धांत हैं, वे स्वतन्त्र होते हैं तो सार्थक बन जाते हैं। यदि स्वतंत्रता न हो तो सिद्धांत व्यर्थ बन जाएंगे। कर्ता कौन है ? प्रश्न है-कर्ता कौन है ? ईश्वर है या आत्मा ? यदि हम आत्मा को कर्ता मानें तो कर्ता स्वतन्त्र होगा । यदि कर्ता स्वतन्त्र नहीं है, किसी दूसरे द्वारा संचालित है तो कर्तृत्व की व्याख्या ठीक नहीं बैठती। उस स्थिति में यह मानना चाहिए-वह आदेश का पालक है। दूसरा जैसा नियोजन करता है, वह वैसा करता है-यथा नियोजितः तथा कुरुते । कर्तृत्व तभी हो सकता है, जब स्वतन्त्रता हो। जैन और बौद्ध दर्शन ने स्वतन्त्रता को स्वीकार किया। प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्तत्व है, वह किसी दूसरी सत्ता के द्वारा बाधित भी नहीं है, शासित भी नहीं है । ऐसा होने पर ही सिद्धांत और आचार-संहिता का अर्थ होता है । एक व्यक्ति के लिए कैसा सिद्धान्त होना चाहिए ? उसे कैसे चलना चाहिए ? ये निर्देश कर्तृत्व की स्वतंत्रता में ही सार्थक हो सकते हैं । कर्तृत्व की स्वतंत्रता का सिद्धांत यदि कर्तृत्व आत्मा का नहीं है तो कर्म का प्रयोजन क्या है ? कर्तृत्व आत्मा का होता है तभी कर्म की सार्थकता हो सकती है । प्रधान है आत्मकर्तृत्व । कर्म प्रधान नहीं है। आत्मवादी व्यक्तियों का सिद्धांत है त्मिकर्तृत्ववाद । यह कर्तृत्व की स्वतंत्रता का सिद्धांत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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