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सद्गति उसके हाथ में है में मैं ही सुन्दर हं, दूसरा कोई नहीं है, वह दुर्गति को आमंत्रित कर लेता है। जब व्यक्ति का अंतः व्यक्तित्व सुन्दर नहीं होता तब बाह्य सुन्दरता से कोई काम नहीं चलता । जब साज-सज्जा की, अपने को सुन्दर दिखाने की भावना जाग जाती है तब व्यक्ति का आंतरिक व्यक्तित्व असुन्दर बनता चला जाता
चतुराई होना, ठीक ढंग से रहना, एक बात है, किन्तु शृंगार, साजसज्जा और विभूषा की भावना का होना बिल्कुल दूसरी बात है । यह भावना छोटे आदमी में अधिक होती है, बड़े आदमी में कम होती है । जैन समाज के एक प्रसिद्ध उद्योगपति को देखा। वे अनेक मिलों के मालिक थे। उनकी धोती इतनी सामान्य थी, जैसे किसी ग्रामीण ने पहन रखी हो। एकदम साधारण कपड़े पहने हुए थे ! आदमी के भीतर जैसे-जैसे बड़प्पन जागता है, बनाव-शृंगार की वृत्ति कम होती चली जाती है । व्यावहारिक स्तर पर
हम इसे व्यावहारिक स्तर पर देखें। एक व्यक्ति को कोई नौकर रखना है । यदि नोकर रहने वाला व्यक्ति कहे-मैं आराम से रहूंगा। क्या उसे रखा जाएगा? नौकर की पहली अर्हता है-पूरा काम करने वाला होना चाहिए। जो व्यक्ति अपना पूरा कर्तव्य निभाता है, व्यक्ति उसे रखना पसंद करता है। आरामतलब को कोई भी मूल्य नहीं देता। व्यवहार में प्रत्येक व्यक्ति को पूरी ड्यूटी देनी पड़ती है, पूरा जागरूक रहना होता है । जहां आराम की भावना आ गई, निकम्मेपन की भावना आ गई, वहां दुर्गति का द्वार खुल गया । वर्तमान जीवन की विपन्नता, कमजोरी, गरीबी-ये सब अपने कर्तृत्व के कारण होती हैं। जो व्यक्ति आरामतलब, बहुत सोने वाला, सुन्दरता में रचापचा रहता है, वह भविष्य में ही नहीं, वर्तमान में भी दुःख पाता है। सद्गति : चार हेतु
प्रश्न है-सद्गति किसे उपलब्ध होती है ? कहा गया
तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुग्गइ तारिसगस्स ॥ चार कारणों से व्यक्ति सुगति को प्राप्त होता है१. तपोगुण की प्रधानता । २. ऋजुमति । ३. क्षांति और संयम में अनुरक्तता।
४. परीषहजयी-कष्ट सहिष्णु । १. दसवेआलियं ४/२७
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