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________________ १६२ मंजिल के पड़ाव सुख के लिए होता है । धर्म, धन, सत्ता-सब कुछ सुख के लिए होते हैं किंतु सुख काम्य कभी नहीं रहा । कहा गया-सुख में उलझो मत । उसमें आसक्त मत बनो। जो व्यक्ति राजनीति या सत्ता के सुख में उलझ गया, वह समाप्त हो गया। जो व्यक्ति धर्म के क्षेत्र में गया और सुख में उलझ गया, वह भी समाप्त हो गया । जो धन-सम्पति के सुख में उलझ गया, वह भी समाप्त हो गया। सुगति का सूत्र है-सुख का आस्वाद मत लो। जो भी मिला, उसे काम में ले लिया। अच्छा आहार मिला, अच्छा मकान मिला, उसका उपयोग कर लिया पर उसका आस्वाद मत लो। उससे चेतना का सम्बन्ध मत जोड़ो। उसमें जो उलझ गया, उसने अपने लिए दुर्गति का रास्ता तय कर लिया। साताकुलता दुर्गति का दूसरा कारण है—सात के लिए आकुल होना । साता हैप्रिय संवेदन । जो निरन्तर यह सोचता रहता है-अमुक वस्तु, अमुक पदार्थ कब मिले, वह सद्गति से दूर चला जाता है। किसी वस्तु के प्रति मन में आकुलता जग जाती है तो दुर्गति शुरू हो जाती है। प्राप्त सुख और सात निरन्तर बने रहें, यह चिन्ता नहीं होनी चाहिए। अमुक योग कब मिलेगा, इस चिन्तन में चित्त का विक्षेप होता है । यह दुर्गति का कारण बनता है और इससे मानसिक तनाव निश्चित ही आता है। सुख-स्वाद और साताकुलता-दोनों आर्तध्यान से जुड़े हुए हैं । प्रिय का संयोग आतंध्यान का ही एक भेद है । जब चेतना प्रिय के संयोग के लिए आकुल हो जाती है तब धर्मध्यान समाप्त हो जाता है। वहां आर्तध्यान शुरू हो जाता है और वह दुर्गति की दिशा में ले जाता है । निकामशायी होना दुर्गति का तीसरा कारण है-निकामशायी होना, खूब सोना। जो बहुत नींद लेता है, सोता ही रहता है, वह सुगति प्राप्त नहीं कर सकता। जब सोने, प्रबलता आती है, दुर्गति की स्थिति बन जाती है। सुगति के लिए बहुत जागरूक रहना होता है । जो अधिक सोता है, वह जागरूक नहीं रह सकता । अधिक नींद लेने वाला न अपने प्रति जागरूक रह सकता है, न अपने दायित्व और कर्तव्य के प्रति जागरूक रह सकता है। जहां जागरूकता नहीं होती वहां दुर्गति सामने आ जाती है। विभूषा दुर्गति का चौथा कारण है-विभूषा । जो व्यक्ति स्वयं को एकदम टिपटॉप रखता है, दिन रात संवारे रखता है और यह सोचता है-दुनिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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