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________________ १५८ मंजिल के पड़ाव जहां ध्यान की मुद्रा का वर्णन आता है वहां दो मुद्राएं बतलाई गईं-हाथों को लटकाते हुए और हाथों को ऊपर करते हुए । ये दो मुद्राएं खड़े रहने की हैं। कैसे बैठे ? तीसरा प्रश्न है-'कहमासे' । कैसे बैठे ? कहां बैठे ? कब बैठे ? कहा गया-सीधा जमीन पर न बैठे। कोई आसन आदि बिछाकर बैठे। आंगन में बैठना हो तो भूमि का प्रमार्जन कर बैठे। जितेन्द्रिय होकर, बिल्कुल शान्त होकर बैठे। आलीनगुप्त होकर बैठे-लीन भी हो और गुप्त भी। चंचलता न हो । स्थिर और शान्त बैठे हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए। अल्लोणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी ॥ आसन कैसे चलें ? कैसे खड़े हों ? इन पर दूसरी दृष्टि से विचार करें। इनके साथ आसनों का विकास हुआ है । एक वे आसन हैं, जो बैठकर किए जाते है ? एक वे आसन हैं, जो खड़े होकर किए जाते है। एक वे आसन हैं, जो चलते हुए किए जाते हैं । जैन योग में आसनों का इस प्रकार निर्देश है-पहले सोकर (लेटकर) किए जाने वाले आसन, फिर बैठकर किए जाने वाले आसन और उसके बाद खड़े होकर किए जाने वाले आसन । शयन आसन चार बार करवट लेकर किए जाते हैं। उसके बाद फिर बैठकर आसन करने का निर्देश है । आसन का सारा विषय भी इसमें समाहित हो जाता है। इसी प्रकार खड़े होने के भी अनेक आसन हैं। यह जीवन का समग्र विषय है। शिष्य की जिज्ञासा जब कोई व्यक्ति दीक्षित होता है, मुनि बनता है तब भाचार्य उसे सबसे पहला पाठ यही पढाते हैं । शिष्य पूछता है-गुरुदेव ! एक मुनि कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? ? कैसे सोए ? कैसे बोले ? जिससे कर्म का बंध न हो?' कहं चरे कहं चिट्ठ कहमासे कहं सए । कहं मुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधई ।। आचार्य ने समाधान देते हुए कहा-तुम संयमपूर्वक चलो, संयम पूर्वक खड़े रहो, संयम पूर्वक बैठो, संयमपूर्वक सोओ, संयमपूर्वक बोलो, १. दसवेआलियं ८/४४ २. दसवेआलियं ४/७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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