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________________ कैसे करें क्रियाएं जीवन की ? १५७ अणुन्नए नावणए, अप्पहिछे अणाउले । इंदियाणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे॥ एक मुनि के लिए कहा गया-वह दौड़ता हुआ न चले, हंसता और बोलता हुआ न चले दवदवस्स न गच्छेज्जा, भासमाणो य गोयरे । हसंतो नाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं सया । चलने का एक निर्देश दिया गया-जो स्थान चलाचल हो, जहां संक्रमण हो, खतरा हो, वहां न जाए। ऐसे स्थान पर मत चलो, जहां फिसलने या गिरने की सम्भावना हो--.. ओवायं विसमं खाj, विज्जलं परिवज्जए । संकमेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।। योगयुक्त गति हो दशवकालिक में चलने के ये निर्देश हैं। उत्तराध्ययन में भी ये निर्देश मिलते हैं। इसकी अगर इतनी ही व्याख्या कर दें कि संयमपूर्वक चलें तो पूरी बात समझ में नहीं आएगी। संयम की व्याख्या करने के लिए इन सारे संदर्भो को ध्यान में रखना जरूरी है । अगर इन सारे संदर्भो को ध्यान में रखा जाए, तो एक सुखद और शान्त गति का सिद्धांत हमारी समझ में आ सकता है। योग में भी गति पर विचार किया गया। कुछ योगियों ने भ्रमणप्राणायाम का आविष्कार किया-चलते समय लम्बा श्वास लें और ध्यान केवल चलने पर ही रहे । गति के सारे निर्देश हम समझे तो हमारी गति स्वयं स्थिति बन जाती है। फिर कोरी प्रवृत्ति नहीं रहती, निवृत्ति-युक्त-प्रवृत्ति बन जाती है । योगयुक्त प्रवृत्ति-युक्तं गच्छध्वं-यह है योग गति । कैसे ठहरें ? दूसरा प्रश्न है-कहं चिठे ? खड़ा कैसे रहे ? कब ठहरे ? कहां ठहरे ? कैसे ठहरे ? इसमें ये तीनों बातें आ जाती हैं। इस बारे में जो निर्देश मिलते हैं, वे भी महत्त्वपूर्ण हैं। खड़े रहने में शरीर की मुद्रा क्या होनी चाहिए । कहा गया-सीधा खड़ा हो, हाथ अपने घुटने से सटे हुए हों, एड़ियां मिली हुई हों और आगे से पैरों में चार अंगुल का अन्तर हो । एक शब्द का प्रयोग मिलता है-उड्ढं ठाणं-उध्वंस्थान । ऊंचा होना, सीधा होना, आयत होना । शरीर सीधा रहे, जिससे विद्युत् के वलय में कोई बाधा न आए। १. दसवेआलियं ५/४ २. दसवेआलियं ५/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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