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________________ सुख के दस प्रकार १४५ जहां अहं आता है वहां स्थितियां बदल जाती हैं। 'अस्ति ' की अनुभूति अहं विलय से सम्भव बनती है। इससे जो सुख मिलता है, वह अनिर्वचनीय होता है । शुभयोग खोजता रहता है । आठवां सुख है— शुभयोग -- रमणीय पदार्थों का योग होना या भोग होना । आदमी ही नहीं, एक जानवर भी रमणीयता को कहां अच्छा स्थान मिलेगा ? कहां अच्छी घास मिलेगी ? खोज और उपलब्धि का हेतु बनती हैं । यह रमणीयता को पौद्गलिक सुख : आत्मिक सुख पौद्गलिक सुख हैं, अहेतुक है । उसके जो सुख पदार्थ से जुड़े हैं, वे पौद्गलिक हैं । जो वे सहेतुक और निमित्तक सुख हैं । एक सुख ऐसा है, जो पीछे कोई हेतु नहीं है । वह है निष्क्रमण का सुख । यह त्याग का सुख है । कुछ व्यक्ति सहेतुक सुख में डूबे हुए हैं । वे पुद्गलों में सुख खोजते हैं । व्यक्ति निर्हेतुक सुख की खोज करते हैं । वह सुख है । कुछ व्यक्ति आहार में सुख मानते हैं और कुछ कुछ आत्मभाव में प्रतिष्ठित अनाहार में । कुछ भोग में सुख मानते हैं और कुछ त्याग में । यह सुख का नानात्व स्पष्ट हैअनुभूतौ सुखं तस्य हेतव: पुद्गला अमी | सुखं निर्हेतुकं शश्वद्, आत्मभावे प्रतिष्ठितम् ॥ कस्यास्ति सुखमाहारे, परस्याऽभोजने सुखम् । सुखस्य चास्ति नानात्वं, भोगे त्यागे तथैव च ॥ निष्क्रमण संयोग और संबंधों शरीर रहता है। नौवां सुख है - निष्क्रमण का सुख । गृहस्थवास को छोड़ना, प्रव्रज्या के लिए निष्क्रमण करना सुख है । यह किसी पौद्गलिक सुख की प्राप्ति के लिए नहीं है । व्यक्ति सब कुछ त्याग कर निकलता है। को छोड़ देता है, आजीविका को भी छोड़ देता है । केवल और वह भी साधना के लिए। इस निष्क्रमण को महान् सुख भगवान् महावीर ने कहा- जो निष्क्रमण का क्षण है, वह है । सातवां गुणस्थान आता है तब निष्क्रमण आता है । सुख इस दुनिया में हो नहीं सकता । वह सुख निष्क्रमण से उपलब्ध होता है । अनाबाध सुख माना गया है । अप्रमाद का क्षण अप्रमाद से बड़ा दसवां सुख है - अनाबाध सुख । यह है - वीतरागता का सुख या मोक्ष का सुख । हम नौ सुखों को एक कोटि में रख दें और वीतराग के सुख को एक कोटि में रख दें तो भी वीतराग का सुख भारी रहेगा । सबमें विघ्न आता है, अंतराय आता है । कभी सुख आता है, कभी दुःख भा जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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