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सुख के दस प्रकार
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जहां अहं आता है वहां स्थितियां बदल जाती हैं। 'अस्ति ' की अनुभूति अहं विलय से सम्भव बनती है। इससे जो सुख मिलता है, वह अनिर्वचनीय होता है ।
शुभयोग
खोजता रहता है ।
आठवां सुख है— शुभयोग -- रमणीय पदार्थों का योग होना या भोग होना । आदमी ही नहीं, एक जानवर भी रमणीयता को कहां अच्छा स्थान मिलेगा ? कहां अच्छी घास मिलेगी ? खोज और उपलब्धि का हेतु बनती हैं ।
यह रमणीयता को
पौद्गलिक सुख : आत्मिक सुख
पौद्गलिक सुख हैं, अहेतुक है । उसके
जो सुख पदार्थ से जुड़े हैं, वे पौद्गलिक हैं । जो वे सहेतुक और निमित्तक सुख हैं । एक सुख ऐसा है, जो पीछे कोई हेतु नहीं है । वह है निष्क्रमण का सुख । यह त्याग का सुख है । कुछ व्यक्ति सहेतुक सुख में डूबे हुए हैं । वे पुद्गलों में सुख खोजते हैं । व्यक्ति निर्हेतुक सुख की खोज करते हैं । वह सुख है । कुछ व्यक्ति आहार में सुख मानते हैं और कुछ
कुछ
आत्मभाव में प्रतिष्ठित अनाहार में । कुछ भोग
में
सुख मानते हैं और कुछ त्याग में । यह सुख का नानात्व स्पष्ट हैअनुभूतौ सुखं तस्य हेतव: पुद्गला अमी | सुखं निर्हेतुकं शश्वद्, आत्मभावे प्रतिष्ठितम् ॥ कस्यास्ति सुखमाहारे, परस्याऽभोजने सुखम् । सुखस्य चास्ति नानात्वं, भोगे त्यागे तथैव च ॥
निष्क्रमण
संयोग और संबंधों
शरीर रहता है।
नौवां सुख है - निष्क्रमण का सुख । गृहस्थवास को छोड़ना, प्रव्रज्या के लिए निष्क्रमण करना सुख है । यह किसी पौद्गलिक सुख की प्राप्ति के लिए नहीं है । व्यक्ति सब कुछ त्याग कर निकलता है। को छोड़ देता है, आजीविका को भी छोड़ देता है । केवल और वह भी साधना के लिए। इस निष्क्रमण को महान् सुख भगवान् महावीर ने कहा- जो निष्क्रमण का क्षण है, वह है । सातवां गुणस्थान आता है तब निष्क्रमण आता है । सुख इस दुनिया में हो नहीं सकता । वह सुख निष्क्रमण से उपलब्ध होता है । अनाबाध सुख
माना गया है ।
अप्रमाद का क्षण अप्रमाद से बड़ा
दसवां सुख है - अनाबाध सुख । यह है - वीतरागता का सुख या मोक्ष का सुख । हम नौ सुखों को एक कोटि में रख दें और वीतराग के सुख को एक कोटि में रख दें तो भी वीतराग का सुख भारी रहेगा । सबमें विघ्न आता है, अंतराय आता है । कभी सुख आता है, कभी दुःख भा जाता है ।
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