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सख के दस प्रकार
जितने आदमी उतनी ही अनुभूतियां । अनुभूति से परे सुख का कोई अस्तित्व नहीं है । 'अमुक वस्तु में सुख है' यह केवल आरोपण, कल्पना या भ्रम है । सुख का एक मात्र साधन है हमारी अपनी अनुभूति । अनुभूति है, संवेदन है तो सुख है । यदि ये नहीं हैं तो कुछ भी मिल जाए, सुख नहीं होगा। आदमी सो रहा है, सुख का अनुभव नहीं हो रहा है। वह एकांत में बैठा है, उसे सुख नहीं मिल रहा है । जैसे ही कोई वस्तु सामने आई, उस
ओर ध्यान गया, संवेदन जगा और सुख होने लगा । सुख है एक योग, एक अनुभूति । वस्तु के साथ शारीरिक विद्युत् और प्राणशक्ति का योग मिलता है तो सुख का प्रारम्भ हो जाता है। फिर भी आरोपण, उपादान और निमित्त कारण के आधार पर सुख के अनेक विकल्प किए गए हैं। यह जैन दर्शन और अनेकांत की अपनी विशेषता है कि पौद्गलिक वस्तु के त्याग को महत्त्व देते हुए भी उसकी उपयोगिता को अस्वीकार नहीं किया। जैन दार्शनिक आत्मिक सुख को मूल्य देते हैं पर पौद्गलिक सुख का भी अस्वीकार नहीं करते । सुख के वर्गीकरण में उन्हें भी स्थान दिया गया है । सुख के दस प्रकार
स्थानांग सूत्र में सुख के दस प्रकार बतलाए गए हैं१. आरोग्य २. दीर्घ आयुष्य ३. आढ्यता-धन की प्रचुरता ४. काम-शब्द और रूप की उपलब्धि ५. भोग-गंध, रस और स्पर्श की उपलब्धि ६. संतोष-अल्प इच्छा ७. अस्ति-जब-जब जो प्रयोजन होता है तब-तब उसकी पूर्ति हो
जाना। ८. शुभयोग-रमणीय विषयों का योग होना। ९. निष्क्रमण--प्रव्रज्या ग्रहण करना ।
१. ठार १०/८३
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