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मंजिल के पड़ाव करना। भंवरा काला ही नहीं होता, उसमें पांचों वर्ण होते हैं पर उसे काला ही कहा जाता है। योग सत्य
नौवां है योग सत्य । दस व्यक्ति जा रहे हैं। किसी संबन्ध के कारण किसी व्यक्ति को यह कहकर बुलाया गया-ओ टोपीवाले ! इधर आभो । इस आवाज को सुनकर कौन आएगा? जो टोपी वाला है, वही आएगा। शेष नौ नहीं आएंगे । यह होता है योग सत्य-किसी विशेष चिह्न के आधार पर कुछ कहना । औपम्य सत्य
दसवां है औपम्य सत्य-उपमा के द्वारा किसी बात को कहना । साहित्य में उपमाएं भरी हैं। आज का साहित्य प्रतीकात्मक हो गया है। आज के प्रतिमान कुछ बदल गए हैं किन्तु पुराने प्रतिमानों में उपमा के लिए बहुत बड़ा स्थान था। संस्कृत और प्राकृत साहित्य में हजारों-हजारों उपमाएं प्रयुक्त हुई हैं। रूपक और उपमा का व्यापक प्रयोग देखा जा सकता है । रूपक के द्वारा तादात्म्य बतलाया गया और उपमा के द्वारा सादृश्य । प्रश्न उभरा-मुख कैसा है ? कहा गया-चन्द्रमा जैसा । आंख कैसी है ? वह कमल जैसी है। चरण कमल, हस्त-कमल, नयन-कमल आदि-आदि प्रयोग इसके निदर्शन हैं। आचार्य भिक्षु ने भी उपमाओं का बहुत प्रयोग किया है । अत्यन्त क्रोधी व्यक्ति को लक्ष्य कर उन्होंने लिखा-'क्रोधी व्यक्ति ऐसे उछलता है जैसे भाड़ में से चना उछलता है।' औपम्य सत्य का तात्पर्य है-उपमा के द्वारा किसी वस्तु या सचाई का प्रतिपादन करना । ग्राह्य है सापेक्षवाद
सत्य के ये दस विकल्प हैं। इन विकल्पों में सत्य को इतना व्यापक रूप दिया गया है कि सहसा किसी बात को झूठ कह देना उचित नहीं है । हम प्रत्येक कथन पर सोचें-किस अपेक्षा से यह सत्य हो सकता है ? यदि सत्य के प्रति इतना व्यापक दृष्टिकोण नहीं होता है तो कलह, झगड़े, विवाद -~सब पैदा हो जाते हैं। सत्य की इस व्यापकता में विवाद को बहुत कम अवकाश रहता है। भगवान् महावीर का अनेकांतवाद या सापेक्षवाद का जो दृष्टिकोण है, वह सत्य के प्रति इतना विनम्र है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए ग्राह्य बन सकता है।
___महावीर ने कहा- 'तुम भाषा के द्वारा निरपेक्ष सचाई की बात करते हो, पर यह संभव नहीं है । वस्तु अनन्तधर्मा है। तुम उसके एक धर्म को पकड़कर समग्रता की बात करते हो, उसे पूरा बतलाने का प्रयत्न करते हो, यह कैसे संभव है ? भाषा में यह ताकत ही नहीं है कि वह पूरी बात कह
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