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सत्य के दस प्रकार
'सत्य क्या है ?' यह बहुत उलझन भरा प्रश्न है। जब-जब उलझन होती है तब तब गुरु की शरण में जाना होता है। गुरु वही है जो उलझन को सुलझा दे, समस्या को समाधान दे। शिष्य ने निवेदन किया-गुरुदेव ! सत्य सुनते-सुनते कान थक गए हैं। आखिर सत्य है क्या ? मैं उसे अभी समझ नहीं पा रहा हूं। उसका मूल क्या है ?
आचार्य ने कहा-सत्य बहुत व्यापक शब्द है । वह हमारे लिए क्यों जरूरी है ? उसका हृदय क्या है ? इसे समझो। सत्य का स्वरूप यह
अस्ति यद वाग्गतं सत्यं, तत् सापेक्षमुदीरितम् । वाचा यत् प्रतिपाद्यं स्यात्, निरपेक्ष भवेन्न तत् ॥
जो वाग्गत सत्य है, वह सापेक्ष है। वाणी के द्वारा प्रतिपादित सत्य निरपेक्ष नहीं हो सकता।
सत् : सत्य
आचार्य ने बहुत सुन्दर समाधान दिया है । एक होता है अर्थ और एक होता है शब्द । एक 'घड़ा' पदार्थ है और एक 'घड़ा' शब्द । वह घड़ा पदार्थ है, जिसमें पानी रहता है। घड़ा शब्द और घड़ा अर्थ-ये दो हैं। जो पदार्थ है, वह सत्य है । जो जीव है, पुद्गल है, वह न सत्य है और न असत्य । वह सत् है । इस दुनिया में जो अस्तित्व है, सत्ता है, वह सत् है । वही सत् जब वाणी का विषय बनता है तब सत्य बन जाता है ! 'घट' पदार्थ 'घट' शब्द-यह सत्य बन गया। घड़े को घड़ा शब्द बता रहा है इसलिए घड़ा सत्य है । डायरी को हम घड़ा कह दें तो असत्य हो जाएगा। घड़े का घड़ा कहना सत्य है किन्तु डायरी को घड़ा कहना सच नहीं है । जो अर्थ है, उसको वही बता रहा है तो वह सत्य है। जो अर्थ है, उसका वाचक जो शब्द नहीं है, वह असत्य है। सापेक्ष है सत्य
सत्य बनता है वाणी के साथ जुड़कर । शब्द के साथ अर्थ जुड़ा और सत्य बन गया । जो हम संकेत कर देते हैं, वही उसका अर्थ हो जाता है।
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