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आणि सम्पदा
१. संयम-ध्रुवयोगयुक्तता-चारित्र में सदा समाधि युक्त होना । २. असंप्रग्रह
-जाति, श्रुत आदि मदों का परिहार । ३. अनियतवृत्ति -अनियत विहार ।
४. वृद्धशीलता -शरीर और मन की निविकारता, अचंचलता। श्रुत सम्पदा
आचार्य आचार सम्पन्न है, किन्तु श्रुत सम्पन्न नहीं है, तो उसका मूल्य कम होगा । श्रुत के बिना बाह्य वातावरण में आचार का प्रभाव भी बढ़ता नहीं है । व्यक्ति बहुत आचारवान् है किन्तु वह लिखना, पढ़ना और बोलना नहीं जानता है, तो दूसरों के लिए कम उपयोगी होगा । केवलज्ञान अच्छा है, पर श्रुतज्ञान नहीं है तो वह कितना काम का होगा। उससे संघ की प्रभावना नहीं होगी, व्यक्ति दूसरों तक अपनी बात का संप्रेषण नहीं कर पाएगा। संघ की वर्चस्विता तभी बढ़ती है, जब आचार्य आचार के साथ श्रुत संपदा से सम्पन्न होता है । जीवन विज्ञान में यही बताया जाता है-श्रुत सम्पन्नता के साथ-साथ आचार सम्पन्नता का ज्ञान भी कराया जाए । आचार संपन्नता अपने जीवन की पवित्रता के लिए है और श्रुत सम्पन्नता दूसरों को पवित्र बनाने के लिए है । आचार सम्पन्नता का अर्थ है-स्व-जीवन की पवित्रता । श्रुत संपन्नता का अर्थ है-संप्रेषणता, दुसरों तक पहुंचने की क्षमता, विश्व को अपना दर्शन समझाने की क्षमता । जब आचार और श्रुत-दोनों होते हैं, तब परिपूर्ण व्यक्तित्व बनता है।
श्रुत सम्पदा के चार विकल्प हैं१. बहुश्रुतता-अंग और उपांग श्रुत में निष्णातता । २. विचित्र सूत्रता-स्व और पर दोनों परम्पराओं में निपुणता । ३. परिचितसूत्रता-आगमों से चिर परिचित होना । ४. घोष-विशुद्धि-कर्ता-सूत्र उच्चारण का स्पष्ट अभ्यास कराने की
समर्थता । शरीर संपदा
__ आचार्य के लिए केवल आंतरिक व्यक्तित्व को ही नहीं, बाहरी व्यक्तित्व को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। बाहरी व्यक्तित्व का भी अपना मूल्य होता है । आचार और श्रुत की संपन्नता जरूरी है। शरीर की संपदा भी बहुत विशिष्ट होनी चाहिए, पर उसकी अनिवार्यता नहीं है । शरीर संपदा के चार विकल्प हैं
१. आरोह-परिणाह युक्तता-आरोह का अर्थ है ऊंचाई और परिणाह का अर्थ है-विशालता। इस सम्पदा का तात्पर्य है-शरीर का उचित ऊंचाई और विशालता से सम्पन्न होना।
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