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मंजिल के पड़ाव
घटना के साथ जुड़ जाए तो दुःख नहीं होगा। आज व्यक्ति घटना को देखता नहीं है, भोगता है । यही स्थिति तनाव पैदा करती है। आर्तध्यान : मानसिक तनाव
प्राचीन काल में तनाव की मात्रा कम थी। आर्तध्यान और मानसिक तनाव-दो नहीं हैं। आर्तध्यान के जो चार प्रकार हैं, वे मानसिक तनाव के प्रकार हैं
१. प्रिय के वियोग से होने वाले मानसिक संताप । २. अप्रिय के संयोग से होने वाला मानसिक संताप । ३. रोग-वेदना से होने वाला मानसिक संताप ।
४. प्रिय का संयोग वियोग में न बदल जाए, इस चिन्ता से उत्पन्न मानसिक संताप ।
यह आतंध्यान आज की भाषा में मानसिक तनाव है। केवल गृहस्थ को ही नहीं, मुनि को भी आर्तध्यान हो सकता है इसीलिए पांचवें-छठे गुणस्थान में आर्तव्यान माना गया है। प्राचीन काल में यह प्रबल नहीं था। हमें यह मानने में कोई कठिनाई नहीं है कि आज जो मानसिक तनाव बढ़ा है, उसमें दुःषमा काल भी कारण बना है। यह स्पष्ट है ---समस्याएं ज्यादा उलझी हैं, मनोबल घटा है। हम इसमें काल का प्रभाव क्यों नहीं मानें ? आज से सौ वर्ष पहले आदमी में जितनी सहन करने की शक्ति थी. उतनी आज नहीं है। आज छोटा बच्चा भी सहन नहीं कर सकता । शिष्य हो. पुत्र हो या कर्मचारी, सहन करना कोई नहीं जानता है । सहिष्णुता कम होगी तो मन का दुःख बढ़ेगा। वचन का दुःख
दुःषमाकाल का सातवां लक्षण है वचन का दुःख । सहज प्रश्न उभरता है-दुःख का संवेदन मन में हो सकता है, किन्तु वचन में कोई दुःख होता ही नहीं है । वचन संवेदनात्मक प्रक्रिया नहीं है, फिर उससे दुःख कैसे होगा? इसका अर्थ होना चाहिए-दुःषमा काल में वचन सम्बन्धी दुःख मिलता है । वचन के बाण इतने जहरीले होते हैं कि व्यक्ति दुःख से आप्लावित हो जाता है। प्रश्न हो सकता है-जिसको सुषमा कहा जाता है, क्या उस समय वचन के तीर कम थे ? पुराने जमाने में भी वचन का तीखापन कम नहीं था । यदि तीखापन नहीं होता तो दशवकालिक में यह क्यों कहा जाता'
मुहुत्तदुक्खा हु हवंति कंटया, अओमया तेवि तओ सुउद्धरा ।
वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणबंधीणि महब्भयाणि ॥ १. ठाएं ४/६१ २. दसवेआलियं ९/३/७
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