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आचार्य पद की अर्हता
प्रत्यक व्याक्त की अर्हता होती है। किसी भी काम पर कोई नियुक्त हो, छोटे से छोटा काम हो और बड़े-से-बड़ा काम, अर्हता का पहले निर्धारण किया जाता है। लौकिक पक्ष में कोई भी अधिकार पर आता है, लोक-सेवा में आता है, तो लोक-सेवा आयोग उसकी अहंता की जांच करता है। उसके द्वारा जो मान्यता प्राप्त होता है, उसे सेवा का अवसर मिलता है। शिक्षा
और न्याय के क्षेत्र में सर्वत्र अर्हता की बात जुड़ी हुई है। धर्म के क्षेत्र में भी अर्हता को मान्यता मिली। किसी भी सेवा के पद पर कोई आए, उसकी अहंता देखी जाए । व्यवहार सूत्र में अहंता के मानदण्ड बतलाए गए हैं। उपाध्याय कौन बन सकता है ? आचार्य और गणावच्छेदक कौन बन सकता है ? इन सबकी अर्हता का उल्लेख किया गया है। स्थानांग सूत्र में भी इस विषय पर अनेक प्रसंगों में चिन्तन हुआ है। अर्हता : मापदण्ड
एक सन्दर्भ है आचार्य की अर्हता का । गण को कौन धारण कर सकता है ? हर व्यक्ति गण को धारण नहीं कर सकता। गण को धारण करने वाले की अर्हता को कम-से-कम छह कोणों से देखा गया है। जिस आचार्य में ये छह अर्हताएं होती है, वही गण को धारण कर सकता है
१. श्रद्धाशील २. सत्यवादी ३. मेधावी ४. बहुश्रुत ५. शक्तिमान्
६. कलहरहित श्रद्धावान्
अहंता का पहला बिन्दु है-श्रद्धावान् होना । जिसमें श्रद्धा-आस्था नहीं है, वह गण को कैसे धारणा करेगा? आचार के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए, शास्त्र और मर्यादा के प्रति श्रद्धा होनी चाहिए । जो इन सबके प्रति १. ठाणं ६/१
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