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सूत्रों का वाचन और शिक्षण ज्ञान की कोई परम्परा विच्छिन्न न हो जाए।
अविच्छिन्ना चिरं भूयात, श्रुतज्ञानपरंपरा ।
आचार्यस्येति दायित्वं, तथा चिन्ता तथा कृतिः ॥ योगक्षेम वर्ष में इस चिन्ता को दुहराया गया-हमारे ज्ञान की परंपरा लुप्त न हो जाए। इसे निरन्तर गतिशील रखना है। ऐसे साधुसाध्वियों को तैयार करना है, जो विशेषज्ञ बनें । इस बात की चिन्ता बराबर रहती है-विच्छेद न हो परंपरा का, वह आगे से आगे बढ़ती जाए। यह पांचवां कारण बनता है पढ़ाने का ।
इन पांच कारणों में दो कारण व्यक्तिगत हैं-निर्जरा होगी और श्रुत ज्ञान होगा। तीन कारण संघीय है, संघ की परम्परा को बराबर बनाए रखने के लिए है। क्यों पढ़ें ?
एक प्रश्न है-शिष्यों को क्यों पढ़ना चाहिए ? इसके भी पांच कारण है।
पहला प्रयोजन है---ज्ञान बढ़ाने के लिए।
दूसरा कारण है-दर्शन की विशुद्धि के लिए । बिना पढ़े दर्शन की विशुद्धि कैसे हो सकती है ?
तीसरा कारण है चारित्र । ज्ञान से चारित्र के नये-नये पर्यायों का विशेष विकास होता है।
चौथा प्रयोजन है-विग्रह और अभिनिवेश के विमोचन के लिए। व्यक्ति में अपना अभिनिवेश होता है, धारणाओं की पकड़ होती है। महागद है अभिनिवेश
चरक में एक रोग का उल्लेख मिलता है-अतत्वाभिनिवेश । इसको महागद माना गया है। यह शायद हर व्यक्ति में होता है । यह विग्रहअभिनिवेश बहुत व्यापक है। जीवन के हर क्षेत्र में----ज्ञान, आचार और धारणा के क्षेत्र में इस अभिनिवेश का साम्राज्य चलता है। बहुत कठिन है इस अभिनिवेश से मुक्त होना । मिथ्यात्व का अभिनिवेश है, दृष्टिकोण का अभिनिवेश है। प्रश्न आया-ज्ञान क्यों करना चाहिए? इसलिए कि यह अभिनिवेश मिट जाए। जीवन में सहज सरलता, न्याय और तटस्थता का भाव विकसित हो इसलिए पढ़ना जरूरी है। कैसे मिटे अभिनिवेश
प्रश्न है-अभिनिवेश कैसे मिटे ? जैसे-जैसे श्रुत की अभिनव धारणाएं १. ठाणं श२२४
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